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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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कला के कद्रदान

रहीम सही अर्थों में कला पारखी थे। एक दृष्टांत से इसकी पुष्टि होती है- एक दिन खानखाना दरबार जा रहे थे। एक चित्रकार ने कोई चित्र लाकर भेंट किया। उस चित्र में कुर्सी पर बैठी सद्यःस्नाता को सिर झुकाकर केश झड़कारते दिखाया गया था। नीचे दासी झांवे से पैर को रगड़ रही थी। खानखाना चित्र देखकर दरबार चले गए। लौटकर चित्रकार को बुलाया और पांच हजार रुपये दिए। चित्रकार ने पूछा- ´´हुजूर! चित्र में ऐसी क्या विशेषता है जिसके कारण मुझे पुरस्कृत किया गया है।´´ खानखाना ने कहा, ´´इसमें स्त्री के अधरों की मुस्कराहट और चेहरे के भाव बहुत सुंदर हैं और इसका रहस्य (झावे की रगड़ से) पैरों में होने वाली गुदगुदाहट में छिपा है। ऐसी कोमल भाव-व्यंजना के लिए पांच हजार भी कम हैं।´´ चित्रकार ने कहा, ´´बस हुजूर, मैं अपना पुरस्कार पा गया। मैं इतने अमीरों के पास गया पर आपके अतिरिक्त कोई और इस सौंदर्य-बोध का कारण नहीं बता सका था।´´

एक बार दरबार में एक भाट ने चकवा-चकवी के माध्यम से कवित्त कहा, जिसका आशय था- ईश्वर करे खानाखाना की विजय का घोड़ा सुमेरु पर्वत तक जा पहुंचे। वह दानी पर्वत को दान दे देगा। फिर सूर्यास्त न होगा इसलिए सदा दिन ही दिन रहेगा। हम लोगों का वियोग न होगा और आनंद ही आनंद रहेगा। खानखाना ने पूछा, ´´पंडित जी! आपकी आयु क्या है?´´ उसने निवेदन किया, ´´35 वर्ष।´´ उसकी आयु 100 वर्ष अनुमानित करके पांच रुपये रोज के हिसाब से कुल राशि खजाने से दिला दी।

राजनीतिक उठापटक और नूरजहां की अप्रसन्नता के कारण रहीम को जहांगीर के हुक्म से कैद में डाल दिया गया। उसकी आज्ञा से रहीम के पुत्र दाराब खां (जो बंगाल का शासक था) का सिर काट लिया गया। उसे एक थाल में रखकर ऊपर कपड़ा डालकर ख़ानख़ाना के पास भेजा गया। सैनिकों ने थाल पेश करते हुए कहा, ´´हुजूर ने तरबूज भेजा है।´´ जब कपड़ा हटाया गया तो पुत्र का कटा सिर देखकर दुखी पिता के नेत्र अश्रुपूरित हो उठे। उस समय भी उनके विवेक ने साथ नहीं छोड़ा, हाजिरजवाबी का जज़्बा मरा नहीं। आंसू भरे नेत्रों से आसमान की ओर देखा और कहा, ´´ठीक है। शहीदी है।´´

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