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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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कौए वंश परम्परा से सामंतवादी होते हैं क्योंकि इनकी जागीरें होती हैं पर स्वभाव से वे पक्के समाजवादी होते हैं। बड़े कूड़ाघरों पर, जो किसी एक कौए की जागीर होती है, अक्सर इनके सहभोज होते रहते हैं जिसमें एक या दूसरे गुट से किसी कौए या कौओं को दूसरी पार्टी से तोड़ने तथा अपनी पार्टी से जोड़ने के प्रच्छन्न प्रयास की मनाही होती है।

´कौए की तरह कांव-कांव करना´ मुहावरा बिल्कुल गलत है और कौआ जाति के लिए अपमानजनक है क्योंकि उनकी कांव-कांव सार्थक होती है। गनीमत यही है हमारे मानवाधिकार की तरह ´कौआधिकार आयोग´ का अभी तक गठन नहीं हो पाया है अन्यथा मुहावरा गढ़ने वाले हिंदी के लोग तो खिंच गए होते। ऐसे ही, कौओं के श्रम संगठन नहीं बने हैं नहीं तो पितृ विसर्जन के दिन सामूहिक अवकाश लेकर या एक दिन की सांकेतिक हड़ताल करके वह मुहावरा-प्रचलन के प्रति अपना विरोध प्रकट करते। हमारे आयोगों और श्रम संगठनों का अस्तित्व ही इंगित करता है कि मानव-समाज में अन्याय, अत्याचार, शोषण आदि होते रहते हैं जो कौआ-समाज में नहीं हैं।

विशेषज्ञ ने बताया कि जिसे हम ´कांव-कांव´ कहते हैं उस ध्वनि की तीव्रता, लय, लम्बाई (जिसे हम मात्राएं कहते हैं) और बीच के अंतराल के माध्यम से कौए अपनी विभिन्न वाचिक मनोदशाएं व्यक्त करते हैं। खोज से पता चला हे कि कांव-कांव के विभिन्न अर्थ होते हैं जैसे- ´आप कैसे हैं?´ ´हम कुशल से हैं´, ´मेरे क्षेत्र में मत घुसो,´ ´देखो! देखो!! चोर´, ´बचाओ-बचाओ´, ´मेरी मदद करो´ ´देखो, मान जाओ´, ´अहा! कितना अच्छा है´, ´मारो-मारो´, ´यह तो दुखद है´, ´आइए-आइए´, ´इससे बचना´, ´तुम कितनी अच्छी हो, प्रिये!´ आदि। चुनाव में खड़ा हुआ नेता अपनी सफल रैली के बाद पत्रकारों के समक्ष लगभग ऐसी ही अभिव्यक्तियां प्रकट करता है।

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