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लेख-आलेख

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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हमारे देश के गांवों की तरह स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के चलते कौओं की जमात में श्रीमती कागा के प्रजनन-काल के दौरान नर-मादा में अतिरिक्त नैकट्य पाया जाता है ताकि जरूरत पड़ने पर दवा की जगह दुआ से काम लिया जा सके। जैसा कि हम आगे देखेंगे इसका प्रभाव इनकी भावी संतति पर पड़ता है। इनकी दुआबाजी की प्रवृत्ति को देखते हुए कोयल अपने अंडे कौओं के घोसले में बेधड़क रख आती है। कौए उन्हें सेते हैं और बच्चे निकलते ही कोयल उन्हें उड़ा ले जाती है। ´बेबी सिटिंग´ की तरह ´अंडा सिटिंग´ का यह धंधा हर कौए के घोसले में चलता है, पर निःशुल्क।

एक-दो वर्ष के जवान कौऐ, युवा शादी-शुदा इंसानों की तरह, अपने घोसले अलग बना लेते हैं परंतु मानवों की तरह वे अपने बूढ़े माता-पिता को कभी नहीं भूलते। वे बराबर उनसे मिलने आते रहते हैं, उनके घोसलों की मरम्मत करते हैं, और जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा करते हैं, उनके साथ उठते-बैठते हैं। इससे बूढ़े मां-बाप अपने को उपेक्षित नहीं समझते। इसका प्रमाण यह है कि कौआ-समाज में, मानव समाज की तरह, बुढ़ापे का अपना स्वयं प्रबंध कर लेने के लिए न तो जीवन बीमा का प्रचलन है और न ही ´वृद्धाश्रम´ पाए जाते हैं। युवा कौए अपने भाई-बहनों की भी सहायता करते हैं। उनकी यह सामाजिकता और परिवार-प्रेम देखकर पक्षी समाज द्वारा यह कहकर उपहास किया जाता है कि परिवार-चिपकू कौआ-समाज आधुनिकता से अभी कोसों दूर है।

कौए ईर्ष्यालु नहीं होते। हमारी तरह पड़ोसी को पिटते देखकर न तो उन्हें खुशी होती है और न ही वे तटस्थ तमाशबीन बने रहते हैं। कौए आक्रांत के पक्ष में विद्रोह का बिगुल बजा देते हैं जिसे हम ´कौआरोर´ कहते हैं और जरूरत पर, फिल्मी नायक की तरह कानून को हाथ में लेते हुए आक्रांता पर आक्रमण तक कर देते हैं। किसी कौए की मृत्यु होने पर कंधा देने के लिए किसी की तलाश नहीं करनी पड़ती है, मातमपुरसी के लिए सैकड़ों कौए स्वयं एकत्र हो जाते हैं।

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