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वैदिक विवरणों से पता चलता है कि घोड़े को पालतू बनाने से पहले वैदिक जनों ने गधे को पालतू बनाया था। इसी कारण अश्वनी कुमारों का वाहन गधा है। प्राचीन काल में गधे का उपयोग गाड़ी और रथ खींचने में किया जाता था। किसी के ब्रह्मचर्य से च्युत होने पर प्रायश्चित के रूप में किए जाने वाले यज्ञ विशेष का नाम गर्दभयाग था। बेबीलोन में भारतीय व्यापारियों की बस्तियों में प्रचलित अश्वमेध वस्तुतः गर्दभमेध था। इतिहासकारों का मानना है कि यह प्रचलन वहां 2100-1800 ई.पू. के बीच प्रारम्भ हुआ होगा। मुख्य भारवाही पशु होने के कारण गधे का खासा महत्व था। बंगाल में आज भी लक्ष्मी का वाहन गधा ही माना जाता है जिसका पुतला लक्ष्मी-पूजा की रात को बस्ती के बाहर खड़ा किया जाता है जो धर्नाजन के लिए व्यापारिक यात्राओं के क्रम में उसी प्राचीन प्रयाण का सूचक है।
डा0 राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है, ´´ऋग्वैदिक युग की अर्थ-व्यवस्था कृषि और घरेलू उद्योगों पर आश्रित थी। कृषि पशुओं पर निर्भर थी जिनमें गाय, बैल, भैंस, घोड़े, बकरी, गधे शामिल थे।´´ अतः स्पष्ट है कि आदिम युग से ही गधा मनुष्य के सुख-दुख का साथी रहा है। गधा सदैव सर्वहारा रहा है। अपने लिए उसने घोड़े की तरह सुविधाओं की मांग कभी नहीं की। घोड़े के लिए प्रतिरात्रि खरारा या मालिश जरूरी होती है अन्यथा वह सुबह काम पर जाने से इन्कार कर देगा। इसीलिए घोड़ों के लिए साईस रखने और अस्तबल बनाने की जरूरत पड़ी।
लंका के राजा रावण को गधों से बहुत लगाव था। उसने अपने एक चचेरे भाई का नाम ´खर´ यानी गधा रखा था। वाल्मीकि जी के अनुसार रावण सीता का हरण करके जिस रथ से लंका वापस गया था उस रथ को गधे खींच रहे थे। वाल्मीकि के शब्दों में (सीता का हरण करते समय) ´´गधों से जुता हुआ और गधों के समान ही शब्द करने वाले रावण का माया निर्मित वह विशाल स्वर्णमय दिव्य रथ वहां दिखाई दिया।´´ रावण के गधे जटायु की तरह प्रगतिशील न होकर नैतिकतावादी थे। इसी कारण वे आज तक संघर्ष करते चले आ रहे हैं।
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