लेख-निबंध >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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गधा साहित्य का भी विषय रहा है। उर्दू के प्रख्यात लेखक किशन चंदर ने एक किताब लिखी थी- ´गधे के सरगुजिश्त´ जो हिंदी में ´एक गधे की आत्मकथा´ के नाम से अनूदित हुई। इसमें एक ऐसे गधे का वर्णन किया गया है जिसका मालिक रामू धोबी कपड़े धोते समय मगरमच्छ की पकड़ में आकर उसका शिकार बन गया था। विधवा धोबिन को पेंशन दिलाने के लिए उस गधे ने अनेक सरकारी दफ्तरों की खाक छानी पर उसकी किसी ने सुनवाई नहीं की। अंत में उसकी मुलाकात तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू से उनके निवास पर हो जाती है और वह लेखक किशन चंदर का लिखा हुआ ज्ञापन पंडित जी को देने में सफल होता है। ज्ञापन देने के अलावा गधे ने पंडित जी से एक और शिकायत की जिसे न तो लेखक ने तैयार किया था और न ही उसे बाद में उस शिकायत की जानकारी हो पाई। मुझे यह बात पंडित जी के बगीचे के माली कुसुमाकर के अप्रकाशित संस्मरणों से पता चली। गधे की शिकायत थी कि बच्चों को पढ़ाई जाने वाली पहली किताब में ´क´ से कबूतर, ´ख´ से खरगोश और ´ग´ से गधा दिया हुआ है। कबूतर और खरगोश जैसे निहायत डरपोक प्राणियों के साथ गधे का रखा जाना उसके लिए अपमानजनक है। यह सुनकर पंडित जी हंसे और उसे आश्वस्त किया कि भविष्य में ´ग´ से ´गमला´ जैसी कोई चीज कर दी जाएगी।
गधे शुरू से ही संगीतज्ञ रहे हैं। इनके गर्दभराग के सामने अच्छे-अच्छे उस्ताद नतमस्तक होते थे। उस समय मानव को ´सा रे म प नी´ नामक पांच स्वर ही प्राप्त थे। संगीतकला की अपूर्णता से क्षुब्ध होकर चोटी के संगीतकारों के एक शिष्टमंडल ने गधे से सहायता के लिए गुहार लगाई। उदार गधे ने अपने दो स्वर-´ग´ ´धा´ इंसान को दान कर दिए। इस प्रकार मानवीय संगीत सात स्वरों के साथ पूरा हो गया और उसी दिन से गधा बेचारा बेसुरा हो गया। गर्दभराग, जिसे कृतघ्न मानव अब ´रेंकना´ कहने लगा है, ध्यान से सुनने पर ज्ञात होगा कि स्वरों का सौंदर्य न होने पर भी ´राग´ में लय विद्यमान है। गर्दभराग तीव्रलय से प्रारम्भ होता है और क्रमशः नीचे आते हुए विलम्बित लय के साथ समाप्त होता है।
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