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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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कौआ कथा

कुछ समय से पता नहीं क्यों लोग बेचारे कौओं के पीछे पड़ गए हैं। कई वर्षों पूर्व फिल्म निर्माता (स्व.) राजकपूर ने बज़रिए अपनी फिल्म एक संगीतमयी अफवाह उड़ा दी थी कि ´झूठ बोले कौआ काटे´ अतः ´काले कौए से डरियो´। पर देश भर में कहीं कोई डरा? इसके विपरीत हमारे देश में ज्यादातर बड़े घोटाले इस गीत के प्रसिद्ध होने के बाद ही प्रचलन में आए। घोटालेबाज जनता के सामने और अदालतों में सरासर झूठ बोलते रहे कि घोटाले उन्होनें नहीं किए पर उनमें से किसी को एक भी कौए ने काटा हो, ऐसी खबर पढ़ने-सुनने में नहीं आई। माना जाता है कि आम तौर पर भारतीय कौए भ्रष्ट नहीं होते अतः ऐसी संभावना नजर नहीं आती कि वे घोटालेबाजों के ´कौरों´ पर टूट पड़े हों। माखन-रोटी के कौर कौए सिर्फ अवतारी पुरुषों के हाथों से ही छीनते हैं। हो सकता है कौओं ने अहिंसक, भुलक्कड़ और क्षमाशील भारतीय मतदाता की तरह घोटालेबाजों को क्षमा कर दिया हो। मुझे लगता है कि कौओं के कटखन्ने होने की बात कहीं बेपर की न हो और किसी उल्लू ने (जो कौए का जन्मजात शत्रु होता है) न उड़ाई हो। फिल्मी गीतों में कौओं की भले ही बदनामी होती रहे परंतु शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता कौए, फिल्मी संगीत पर भला क्यों कान धरेंगें! वैसे भी पितरों के एवज में भोजन करने वाले कौओं को क्या पड़ी है कि वह पितरों की ही संतति को काटते फिरें।

इधर अप्रत्याशित रूप से कौओं के विषय में मेरी जिज्ञासा बढ़ी पर उस प्रकार नहीं बढ़ी जैसे चुनाव आने पर नेता का जनता के प्रति और परीक्षा आने पर विद्यार्थी का पुस्तकों के प्रति प्रेम बढ़ता है। कौओं के बारे में मैं इतना ही जानता था कि ये काले होते हैं और ´कांव-कांव´ करते हैं। इनके बारे में और जानकारी हासिल करने के लिए मैं चिड़ियाघर गया। वहां तरह-तरह के पक्षी थे पर लगा जैसे कौए छुट्टी पर हों। वहीं के एक कर्मचारी ने टालने की गरज से सुझाव दिया कि मुझे पक्षी-विशेषज्ञ से मिलना चाहिए।

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