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जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10546
आईएसबीएन :9781610000000

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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...


शेरशाह की समस्याएं

शेरखान की कन्नौज विजय ने दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने के लिए उसका मार्ग प्रशस्त कर दिया। 10 जून 1540 को हिन्दुस्तान के बादशाह के रूप में उसका विधिवत राज्याभिषेक किया गया। इसके बाद वह शेरशाह के नाम से जाना गया। इससे द्वितीय अफगान-राज की नींव पड़ी। इस नवोदित राज के सामने अनेक समस्याएं थीं। सबसे गंभीर समस्या थी मुगलों के वापस लौट आने की संभावना। इसके अलावा अनेक क्षेत्रों पर अभी अधिकार करना बाकी था। अपने अफगान समर्थकों को जागीरें और ओहदे देना बाकी था। इसके लिए जरूरी था कि विजय और साम्राज्य विस्तार का सिलसिला जारी रखा जाय। अफगानों की अपेक्षाओं को एक सही दिशा देने और पादशाहत की संकल्पना को एक नया अर्थ देने की आवश्यकता थी।

पहली समस्या से निपटने के लिए उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत पर प्रभावी नियंत्रण की आवश्यकता थी। हुमाऊं को भारत से खदेड़ा गया था और मुगलों को इस क्षेत्र से बाहर रखने के लिए बोलन और पेशावर के इलाके शेरशाह ने अपने नियंत्रण में रखे। सारंग खान के नेतृत्व में गक्खर मुगलों के प्रति मैत्री भाव रखते थे। उनके इलाकों पर हमला किया गया, गावों को आग लगा दी गई और विरोध करने वालों को मौत के घाट उतार दिया गया। इस कारण गक्खर मुगलों को तो कोई सहायता न दे सके परंतु अफगानों को अपना शासक स्वीकार नहीं किया। रोहतास दुर्ग का निर्माण हैवतखान और टोडरमल ने आरंभ करवाया किंतु दुर्ग पूर्ण होने पर उसका शुभारंभ शेरशाह ने किया।

उत्तरी सीमा प्रांत के दक्षिणी भाग में बलूची बसे हुए थे। जब शेरशाह खुशाब पहुंचा तो बलूचियों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार उत्तरी सिंध का प्रदेश शेरशाह के नियंत्रण में आ गया। किंतु बलूचियों को अधिक समय तक दबाए नहीं रखा जा सका। शेरशाह की अधीनता स्वीकार करने वाले अन्य अफगान कबाइलियों ने शिकायत की कि बलूची उन्हें सता रहे हैं। शेरशाह ने अपने भतीजे मुबारक खान को बलूचियों को सबक सिखाने के लिए भेजा। बलूचियों ने विद्रोह कर दिया और मुबारक खान को मार डाला। तब हैबत खान को विद्रोह कुचलने के लिए भेजा। 1543 तक उसने मुलतान पर अधिकार कर लिया और फतहखान को वहां का सूबेदार नियुक्त कर दिया। विद्रोही सरदारों को कड़ी सजाएं दी गईं। वसूली के मामले में शेरशाह ने नरमी बरती और राज्य की मांग को घटाकर उपज का एक चैथाई कर दिया। अनेक महत्वपूर्ण सरदारों को इस क्षेत्र में नियुक्त किया गया किंतु बाद में जब मतभेद उभरने लगे तो हैबत खान नियाजी को वहां का सर्वेसर्वा बना दिया गया।

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