जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
राजपूताना विजय
मालवा के अधिग्रहण ने शेरशाह की स्थिति सुदृढ़ कर दी। अब उसने अपना ध्यान राजपूताना पर केंद्रित किया। शेरशाह को वास्तविक खतरा मारवाड़ के राजा मालदेव से था। मालदेव ने 1541 में हुमाऊं की सहायता की थी क्योंकि उसे विश्वास था कि हुमाऊं अपनी गद्दी पुनः प्राप्त कर लेगा। उधर हुमाऊं सिंध और गुजरात में अपना समय नष्ट कर रहा था और शेरशाह बढ़ता चला आ रहा था। हुमाऊं अब पुनः मालदेव के पास आया तो मालदेव का रुख बदला हुआ था। तभी शेरशाह का संदेश पहुंचा कि मालदेव हुमाऊं को बंदी बना ले। पर मालदेव हुमाऊं की सहायता नहीं करना चाहता था तो उसे नुकसान भी नहीं पहुंचाना चाहता था। मालदेव का बदला रूख देखकर हुमाऊं आपस चला गया।
परंतु हुमाऊं के प्रति मालदेव की उदासीनता उसे शेरशाह के कोप से नहीं बचा पाई। हुमाऊं के जाने के अठारह महीने पश्चात् शेरशाह ने मालदेव पर आक्रमण किया। अफगान सेनाएं सुमेल में डेरा डाले थीं और मालदेव की सेनाएं दक्षिण-पश्चिम दिशा में सुमेल से 12 मील दूर डेरा डाले थीं। उस रेतीले इलाके में शेरशाह की सेनाएं पानी और भोजन की कमी से लड़ रहीं थी। अब उसके लिए पीछे हटना भी संभव न था। शेरशाह ने धोखे से मालदेव को जोधपुर लौटने को बाध्य किया। शेरशाह ने अपने नाम राजपूत सरदारों की ओर से चिट्ठियां तैयार करवाई और ऐसी व्यवस्था की वे मालदेव के हाथ आ जाएं। ऐसा ही हुआ। उन चिट्ठियों में लिखा था कि मालदेव के सरदार उसका साथ छोड़कर शेरशाह से मिल जाना चाहते हैं। जनवरी 1544 को मालदेव 12000 सैनिकों की थोड़ी से सेना, जैसा और कुम्भा के नेतृत्व में छोड़ जोधपुर लौट आया। उस छोटी-सी सेना को शेरशाह ने आसानी से परास्त कर लिया। इस विजय से शेरशाह को कोई महत्वपूर्ण लाभ तो नहीं हुआ, हां, उसे राजपूतों की ओर से खटका नहीं रहा।
शेरशाह ने अपनी सेनाएं जोधपुर और अजमेर भेजीं। मेड़ता जीतकर वीरमदेव को सौंप दिया। बीकानेर कल्याणमल को दे दिया। नागौर पर मालदेव का आधिपत्य समाप्त हो गया। जनवरी 1544 के अंत तक जोधपुर को भी जीत लिया गया और मालदेव को सिवाना जाना पड़ा। जोधपुर का प्रशासन व्यवस्थित करने के लिए शेरशाह कुछ समय वहां रहा और फिर खवास खान और ईसा खान नियाज़ी को मारवाड़ का दायित्व सौंप स्वयं लौट गया।
शेरशाह ने राजपूताने में स्थानीय सरदारों को अपदस्थ करने या अधीनता द्वारा उनकी शक्ति को कम करने का प्रयास नहीं किया, जैसा कि वह हिन्दुस्तान के अन्य भागों में कर चुका था। वह समझ चुका था कि ऐसा करना खतरनाक ही नहीं व्यर्थ भी है। उसने उनकी स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से समाप्त करने का लक्ष्य नहीं रखा।
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