जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
भू-राजस्व व्यवस्था
अपने पिता हसन की जागीर के प्रबंधक के रूप में तत्समय के फरीद को 20 वर्षों का गहन और दीर्घ प्रशिक्षण मिल चुका था। उस समय उसके नीति नियामक सिद्धांतों में प्रमुख था - किसानों की भलाई। वह किसान जो जमीन का सीना चीरकर अन्न को बाहर लाता है और जिससे मानव जाति का पोषण होता है। इसलिए निर्धारित भू राजस्व की मात्रा साधारण होती थी। हां, जो भी होती थी उसकी वसूली कड़ाई से होती थी। वसूली करने वालों पर पूरा नियंत्रण रखा जाता था। कर संग्राहकों और जमींदारों को उनका पूरा भाग दिया जाता था।
मापन और बटाई दोनों प्रथाएं चलती थीं- क्योंकि किसान ऐसा चाहते थे। किसानों को यह छूट थी कि राजस्व का भुगतान वे नकद करे या जिंस रूप में। फरीद ने अपने कर्मचारियों को कड़ी चेतावनी दे रखी थी कि भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर कड़ी कार्रवाई होगी। और कई मौके आए कि निर्मम कार्रवाई की गई।
फरीद से शेरशाह बने व्यक्ति की चिंताएं अब व्यापक बन गई थीं। अब उसके राज्य में एक लाख तेरह हजार गांव सम्मिलित थे। राज्य की आय का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत मालगुजारी था अतः पहले उसका स्थिरीकरण आवश्यक था। दूसरी बात यह कि कृषि उत्पादों की वृद्धि जरूरी थी जिससे मालगुजारी स्वतः बढ़ती जाए। कृषक समाज राज्य का आधार था इसलिए किसानों की स्थिति में सुधार के लिए शेरशाह चिंतित रहता था। उस समय तक कृषि विज्ञान विकसित नहीं हुआ था अतः फसल की रक्षा ही उसकी वृद्धि का उपाय था। फसल कीड़ों-पशु-पक्षियों से उतनी नष्ट नहीं होती थी जितनी सेनाओं के आने जाने से होती थी। शेरशाह ने यह सुनिश्चित किया कि उसकी सेना आते जाते कहीं खेती-बाड़ी न उजाडे़। इसलिए वह घुड़सवारों को यह देखने के लिए चारो ओर फैला देता कि सेना के जवान खेती का, खड़ी फसल का अतिक्रमण न कर पाएं। जो सैनिक इस नियम का उल्लंघन करता उसे कठोर दंड मिलता। मार्ग सकरा होने पर यदि किसी खेत से सेना को गुजरना ही होता तो नुकसान की क्षतिपूर्ति सरकारी खजाने से की जाती। यदि सेना के साथ वह स्वयं होता तो खेती-बाड़ी की हालत देखता चलता।
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