जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
शासन करने की विधि
शेरशाह के शासन की आधार-शिला लोक-कल्याण थी। वह स्वयं को प्रजा का रक्षक व पालक समझता था। अशोक महान की तरह उसमें प्रजा के संरक्षक जैसी भावना थी जो उसके पूर्ववर्ती किसी शासक में नहीं थी। प्रजा के कल्याण को वह राज्य का कल्याण समझता था। इससे प्रजा के हित में संलग्न रहना वह अपना धर्म समझता था। कौटिल्य का निर्देश है कि प्रजा को प्रसन्न रखना राजा का परम कर्तव्य है। इस मंत्र को वह कसकर पकड़े था। अतः दिल्ली के सुल्तानों में वह सबसे लोकप्रिय बन गया। उसका शासन पूर्णतया लौकिक था जो उलेमाओं के प्रभाव से सर्वथा मुक्त था। इसी कारण वह अपनी हिन्दू और मुस्लिम जनता को समान रूप से देख पाया। अपनी हिन्दू जनता के प्रति वह जितना उदार, दयालु और न्यायशील था उतना उसके पूर्व का कोई मुसलमान शासक न हो पाया था। वह किसी वर्ग, सम्प्रदाय और धर्म के साथ पक्षपात नहीं करता था। संप्रति जैसी हमारे यहं व्यवस्था है सभी को अपने धर्म और धार्मिक आचरण की स्वतंत्रता थी। उसका राज्य धर्म-निरप्रेक्ष था।
मूलतः शेरशाह का शासन स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश राजतंत्र था परंतु उसकी स्वेच्छाचारिता भय पर आधारित न थी प्रत्युत उसका मूलाधार श्रद्धा-भक्ति थी। उसने अफगानों को धूल से उठाया था, उनके खोए हुए साम्राज्य की पुनर्रचना की थी और उनके सम्मान तथा प्रतिष्ठा की रक्षा की थी। इस कारण वे उसे बड़े आदर से देखते थे और उसकी हर आज्ञा का पालन करने को तत्पर रहते थे। उसकी हिन्दू प्रजा भी आज्ञा पालन किसी भय के कारण नहीं वरन् उसकी उदारता के कारण करती थी क्योंकि शेरशाह ने कभी दमन-नीति का अनुसरण नहीं किया था। सिकंदर लोदी की तरह शेरशाह को इस बात की चिंता थी कि हिंदुओं के बीच उसे लोकप्रियता प्राप्त हो। अतः वह हिंदुओं के प्रति उदार और सहिष्णु था। अतएव उसे हिंदुओं का राष्ट्र-निर्माता स्वीकार करने में कोई अपत्ति नहीं होनी चाहिए। उसके शासन काल में हिन्दी साहित्य का विकास हुआ और उसके द्वारा निर्मित इमारतों में जो हिन्दी-मुस्लिम कला का समिश्रण मिलता है उससे उसके राष्ट्र निर्माण की नीति स्पष्ट हो जाती है।
शेरशाह ने जिस राष्ट्रनीति का निर्माण किया उसी को अपनाकर, शेरशाह के पदचिह्नों पर चलकर मुगल सम्राट अकबर ने महानता का गौरव प्राप्त कर लिया। अकबर की उदारता तथा धर्मिक सहिष्णुता की नीति, राजपूतों के साथ सद्भावना रखने तथा उनका सहयोग प्राप्त करने की नीति और उसकी ‘सुलहकुल’ की विराट चेष्टा का बीजारोपण शेरशाह ने कर दिया था।
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