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जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10546
आईएसबीएन :9781610000000

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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...


अजआतिश मुर्द


जयपुर जीतने के बाद शेरशाह ने कालिंजर के लिए प्रस्थान किया। उन दिनों कीर्ति सिंह वहां का शासक था, जो हुमाऊं का शुभचिंतक माना जाता था। अतः उसे नतमस्तक करना जरूरी था। शेरशाह की दृष्टि कालिंजर दुर्ग पर इसलिए भी थी क्योंकि यमुना घाटी का यह सबसे अभेद्य और प्रबल दुर्ग था। सैनिक दृष्टि से इसका अतीव महत्व था क्योंकि इसे जीत लेने पर दिल्ली तथा मालवा से पूर्वी प्रांतों तक दुर्गों की पंक्ति पूरी हो जाती थी।

जब शेरशाह की सेना कालिंजर के समीप पहुंची तब कीर्ति सिंह ने शेरशाह का स्वागत करने के स्थान पर, जैसी वह अपेक्षा कर रहा था, स्वयं को दुर्ग के भीतर बंद कर लिया। शेरशाह ने चारो ओर ऊंचे-ऊंचे टीले बनवा लिए और उन पर बैठकर उसके सैनिक दुर्ग निवासियों पर गोलियां और बाणों की वर्षा करने लगे। किले पर गोले बरसाने की बजाय शेरशाह बाणों और गोलियों की कठिन विधि से उसे जीतना चाहता था, इसका एक विशेष कारण था। कीर्ति सिंह के दरबार में पटार नामक एक नर्तकी थी जिसके असमान्य रूप की चर्चा शेरशाह ने सुनी थी। अपने दरबार के लिए उसे जीवित पकड़ने के उद्देश्य से ही दुर्ग को तोप के गोलों से उड़ाने के स्थान पर उसने गोलियों और बाणों से किला फतह करने का हुक्म दिया था।

22 मई 1545 को शेरशाह ने दिन का प्रथम प्रहर बीतने के बाद अपने शेखों और उलेमाओं के साथ बैठकर जलपान करना प्रारंभ किया। बीच में शेख निजाम ने कहा, ‘‘नास्तिकों के विरुद्ध युद्ध करने से बढ़कर अन्य कोई कार्य इतना पुण्यदायी नहीं होता। इस युद्ध में आप जीतते हैं तो आपको गाज़ी यानी धर्म के नाम पर विजेता का सम्मान मिलता है और अगर मारे जाते हैं जो जन्नतनशी होते हैं।’’ भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।’’ (2.37) यानी यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग पहुंचेगा, और यदि तू विजयी हुआ तो तू पृथ्वी का उपभोग करेगा। लेकिन शेख निजाम का कथन संसार की सबसे बड़ी विडम्बना (आयरोनी) सिद्ध होने वाली थी।

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