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जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10546
आईएसबीएन :9781610000000

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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...


शेरशाह अपने सैनिकों के साथ सीधा संपर्क रखता था। वह भर्ती करने, वेतन निश्चित करने तथा उसके भुगतान किए जाने, उनकी तरक्की आदि की व्यवस्था स्वयं देखता था। वह सैनिकों की हर प्रकार की सुविधा का ध्यान रखता था और उन्हें संतुष्ट रखने का प्रयत्न करता था। सैनिक उससे व्यक्तिगत रूप से मिलकर अपनी समस्याएं उसके सामने रख सकते थे।

घोड़ों के दागने की प्रथा फिर प्रारंभ की गई। देश के बाहर यह 12वीं सदी में शुरू हुई थी। भारत में सबसे पहले यह प्रथा अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) ने प्रारंभ की थी। उसके पास पौने पांच लाख घोड़े थे। उसके बाद शेरशाह ने दागने की प्रथा फिर शुरू की। अपनी आज्ञाओं का पालन कराने के लिए शेरशाह ने मुंसिफ नियुक्त कर रखे थे।

बादशाह के खिलाफ संभावित षड्यंत्रों और कुचक्रों का पता लगाने के लिए एक कुशल गुप्तचर विभाग की आवश्यकता होती है। मध्ययुग षड्यंत्रों और कुचक्रों का युग था अतः शेरशाह ने एक ऐसे विभाग का गठन किया जिसमें अति कुशल, ईमानदार तथा कर्तव्यनिष्ठ गुप्तचर थे। उसके विश्वस्त गुप्तचरों का एक समूह राज्य के विभिन्न भागों में सदैव भ्रमण किया करता था और सरकारी कर्मचारियों के कार्यों व देश की स्थिति की सूचना शेरशाह को दिया करता था। एकाधिकारी शासक सदैव सशंकित और संवेदनशील रहता है अतः शेरशाह अपने अमीरों की गतिविधियों की सूचना गुप्तचरों से प्राप्त किया करता था।

सेना के बड़े बड़े ओहदों पर प्रायः अफगान या अन्य मुसलमान ही रखे जाते थे। सभी नौकरियों के द्वार उसने हिंदुओं के लिए नहीं खोले थे। उनके प्रति एक सीमा तक वह असहिष्णु था। यह इसी से विदित होता है कि उसने हिंदुओं से जजिया (कर) लेना बंद नहीं किया था। शिया मुसलमानों को तो वह घृणा की दृष्टि से देखता था।

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