जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
शेरशाह की मालवा नीति
मालवा शासकों ने शेरशाह के पुत्र कुतुबशाह की सहायता नहीं की थी इस कारण शेरशाह उनसे नाराज था। मल्लू खान (उर्फ कादिरशाह) ने न केवल मांडू पर अधिकार करके स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था अपितु शेरशाह को जो अपमानजनक पत्र लिखे थे उन पर अपनी मोहर भी लगाई थी। मालवा पर आक्रमण का राजनीतिक कारण था हुमाऊं के लौटने का मार्ग अवरुद्ध करना और अपने राज्य का विस्तार करना। मालवा के सरदार विशेष रूप से मल्लू खान सदैव शेरशाह के विरोधी रहे थे। संभव था हुमाऊं के वापस लौटकर आने पर ये सरदार उससे मिल जाते। हुमाऊं गुजरात पर विजय प्राप्त करके भारत-विजय का आधार बनाना चाहता था। हुमाऊं का सूबेदार 1542 तक ग्वालियर पर अधिकार किए रहा था। अतः शेरशाह की पश्चिमी सीमा सुरक्षित नहीं थी। यदि ये सरदार मारवाड़ के शक्तिशाली राजा मालदेव से मिल जाते तो शेरशाह के लिए अत्यंत खतरनाक सिद्ध हो सकते थे। मालवा विजय के पीछे दो सशक्त कारण थे-एक, गुजरात और मारवाड़ तक सीधी पहुंच बनाना क्योंकि इन दो रास्तों से मुगल मालवा में प्रवेश कर सकते थे; दो, मालवा पर मालदेव की नजर थी अतः उसे और उसके मित्रों को कुचलना जो गंभीर खतरा हो सकते थे।
शेरशाह ने शुजात खान को रोहतास से ग्वालियर की ओर कूच करने को कहा और उसे घेरने का हुक्म दिया। दो वर्षों बाद ही सेनापति अब्दुल कासिम बेग को किला सौंपने के लिए मजबूर किया जा सका था। इसके शीघ्र बाद ही शेरशाह मालवा अभियान पर निकल पड़ा। ग्वालियर उसके मार्ग में पड़ता था। अब्दुल कासिम ने दुर्ग सौंप ही दिया था। रायसीन के पूरनमल ने भी शेरशाह के सम्मुख समर्पण कर दिया। उसे सम्मानित कर शेरशाह ने वापस भेज दिया। उसका भाई चतुर्भज शेरशाह की सेवा में रह गया।
मालवा में दाखिल होते ही शासक कादिर खान सेवा में उपस्थित हुआ। शेरशाह ने उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की। उसे शाही खेमे में शामिल कर लिया। फिर वह उज्जैन की ओर रवाना हो गया। कादिर खान ने सुना कि उसे लखनौती (बंगाल) भेजा जाएगा। डरकर, अपना असबाव वहीं छोड़ कर वह भाग खड़ा हुआ। कादिर खान जानता कि विश्वासघात और अवसरवादिता शेरशाह की कूटनीति के दूसरे नाम हैं। इस प्रकार बिना रक्तपात क, रायसीन को छोड़कर, मालवा हाथ में आ गया। उसने नए प्रशासनिक प्रबंध किए। शुजात खान को हांडिया; राजीखान को सत्वास और मांडू तथा धार जुनैद खान को सौंप दिए। इस प्रकार रायसीन को छोड़कर शेष मालवा अफगानों के अधिकार में आ गया।
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