| श्रंगार-विलास >> यात्रा की मस्ती यात्रा की मस्तीमस्तराम मस्त
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मस्तराम की यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।
    टी.टी ने हमें एक किनारे वाली बर्थ दे दी। मैंने सोचा यह अच्छा रहेगा, इस तरह
    विजय सो लेगा और मैं भी आराम से बैठ पाऊँगा, क्योंकि साइड वाली बर्थ छोटी तो
    होती है, लेकिन उसमें व्यक्ति सीधे बैठ सकता है क्योकि स्लीपर में साइड केवल दो
    ही बर्थ होती हैं, न कि अंदर वाली की तरह तीन, जहाँ सारी रात बैठने की जगह की
    ऊंचाई कम होने के कारण व्यक्ति सीधे बैठ नहीं सकता। बर्थ के लिए बहस करने की
    स्थिति में हम नहीं थे, यदि वह हमें लम्बी वाली दे पाता, तो हमारे पास कोई चारा
    नहीं था। 
    
    गंतव्य के शहर में हमें केवल एक दिन के लिए रुकना था, इसलिए हमारे पास अपने
    थोड़े से सामान के लिए केवल अपने अपने एक हैण्ड बैग थे। हम गाड़ी आने के समय तक
    टी.टी के आस-पास मंडराते रहे थे, ताकि अपनी सीट सुनिश्चित किये रहें, और इस बीच
    कोई दूसरा उससे हमारी जगह न माँग ले। टी.टी के अनुसार यहाँ से कुल 12 बर्थें
    थीं।   
    
    जिन लोगों के पास पहले से आरक्षण था वे सभी जाकर अपनी-अपनी जगहों पर बैठने लगे।
    मैं और विजय टी.टी के साथ ही लगे रहे। रेल चलने के बाद ही हम सीट पर अपना
    आरक्षण पा सके। विजय को सीट पर छोड़ कर मैं कोच के दरवाजे पर खड़ा हो गया।
    थोड़ी देर के बाद मैं विजय के पास उसकी बर्थ के पास पहुँचा तो पाया कि उसकी
    बर्थ के ऊपर वाली बर्थ पर इस समय तक भी कोई नहीं आया था। विजय मुस्कराता हुआ
    बोला, "अपन तो यहाँ पसर गये हैं, तुम्हारा जब मन करे, तब यहाँ बैठ जाना।"
    
    उसके ऊपर वाली खाली बर्थ के लालच में टी.टी. को ढूँढ़ता हुआ जब मैं पिछले
    डिब्बे में पहुँचा तो उसे अपने साथी से बातें करते पाया। उसे खाली बर्थ के बारे
    में बता कर तथा एक और सीट के पैसे देकर मैंने अपने सोने का भी इंतजाम कर लिया।
    इस सारे कार्यक्रम में साढ़े ग्यारह बज गये। अब तक लगभग सभी यात्री नींद के
    आगोश में पहुँच चुके थे। अब जबकि ऊपर की बर्थ मुझे मिल चुकी थी तो मुझे उस पर
    जाकर लेटने की कोई खास जल्दी नहीं थी। मैंने बैग से पान की पुड़िया निकाली, फिर
    उसमें से एक पान निकाला और अपने मुँह के हवाले किया। मुझे मालूम था कि अब
    रास्ते में पान नहीं मिलेंगे, यदि मिले भी तो कोई ठिकाना नहीं कैसे हों!
    			
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