| श्रंगार-विलास >> यात्रा की मस्ती यात्रा की मस्तीमस्तराम मस्त
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मस्तराम की यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।
    विजय हैण्डबैग को तकिए की तरह लगाए हुए जेम्स पैटरसन के एक नावल में डूबा हुआ
    था। ऊपर की बर्थ पर पड़े अपने बैग से मैंने अर्ल स्टेनले गार्डनर की नावल
    निकाली और विजय के पैरों को खिड़की तरफ खिसकाकर सीट के दूसरी ओर बैठ गया। नावल
    अभी तक मैं केवल आधी ही पढ़ पाया था, इसलिए मिनटों में मैं भी अपनी नावल में खो
    गया। रेल हमेशा की तरह अपनी खटर-खट करती हुई चली जा रही थी। लगभग एक घंटे बाद
    मेरी नावल खत्म होने की आई तो मैंने इधर-उधर देखा, सभी सो रहे थे, विजय की नावल
    उसके हाथ के नीचे दबी हुई थी और वह भी कब का सो चुका था। नावल का अंतिम भाग चल
    रहा था, कहानी अपनी चरम-सीमा पर पहुँच गई थी, मैं दोबारा उपन्यास में खो गया। 
    
    उपन्यास का आखिरी पन्ना पढ़ने के बाद मैंने खड़े होकर अँगड़ाई ली और डिब्बे में
    इधर-उधर देखा, लगभग एक बज रहा था, अब वहाँ कोई जागने वाला नहीं था। गर्मियों की
    रात में चलती हुई गाड़ी में कुछ तो हिचकोले और कुछ रात की हल्की ठण्डी हवा का
    असर सभी पर हो गया था। 
    
    मैं भी अब सोने का मन बना रहा था। कहानी पढ़ते समय तो मैं उसमें पूरा खो गया था
    लेकिन अब सोने से पहले पान के पत्ते के टुकड़े मुँह में अच्छे नहीं लगे। पान के
    टुकड़े साफ करने के लिए मैंने बैग से मंजन और ब्रश निकाला और डिब्बे के अगले
    हिस्से में बने बाथरूम की ओर गया। डिब्बे का भारी दरवाजा न तो पूरी तरह बंद था,
    न ही पूरी तरह खुला था। दाँत-मुँह और हाथ इत्यादि साफ करके और अच्छी तरह कुल्ला
    करने के बाद मैं बाथरूम से बाहर निकला।
    
    दरवाजा खोलते ही किसी के सामने होने का अहसास हुआ। ख्यालों में खोया हुआ मैं
    रुक कर सभ्यता से किनारे होते हुए आने वाले व्यक्ति के बाथरूम में जाने का
    इंतजार करने लगा, ताकि उसके जाने के बाद अपनी सीट की और लौट सकूँ। उपन्यास का
    कोर्ट ड्रामा अभी भी मेरे मस्तिष्क में घूम रहा था। लेकिन जब आने वाला व्यक्ति
    बाथरूम के दरवाजे में खड़ा ही रहा, तब मेरा ध्यान उस पर गया। जीन्स और कुर्ता
    पहने एक लड़की दरवाजे पर खड़ी होकर मुझे एकटक आँखों से देख रही थी। 
    			
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