आवाहन, आसन, अर्ध्य, पाद्य, पाद्यांग आचमन, अभ्यंगपूर्वक स्नान, वस्त्र एवं यज्ञोपवीत, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल-समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन - ये सोलह उपचार हैं। अथवा अर्ध्य से लेकर नैवेद्य तक विधिवत् पूजन करे। अभिषेक, नैवेद्य, नमस्कार और तर्पण - ये सब यथाशक्ति नित्य करे। इस तरह किया हुआ शिव का पूजन शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है। अथवा किसी मनुष्य के द्वारा स्थापित शिवलिंग में, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग में, देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग में, अपने-आप प्रकट हुए स्वयम्भूलिंग में तथा अपने द्वारा नूतन स्थापित हुए शिवलिंग में भी उपचार-समर्पण पूर्वक जैसे-तैसे पूजन करने से या पूजन की सामग्री देने से भी मनुष्य ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह सारा फल प्राप्त कर लेता है। क्रमश: परिक्रमा और नमस्कार करने से भी शिवलिंग शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है। यदि नियमपूर्वक शिवलिंग का दर्शनमात्र कर लिया जाय तो वह भी कल्याणप्रद होता है। मिट्टी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेर-पुष्प, फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से भी अपनी रुचि के अनुसार शिवलिंग बनाकर तदनुसार उसका पूजन करे अथवा प्रतिदिन दस हजार प्रणव मन्त्र का जप करे अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्र प्रणव का जप किया करे। यह कम भी शिवपद की प्राप्ति करानेवाला है ऐसा जानना चाहिये।
जपकाल में मकारान्त प्रणव का उच्चारण मन की शुद्धि करनेवाला होता है। समाधि में मानसिक जप का विधान है तथा अन्य सब समय भी उपांशु जप (मन्त्राक्षरों का इतने धीमे स्वर में उच्चारण करे कि उसे दूसरा कोई सुन न सके। ऐसे जप को उपांशु कहते हैं।) ही करना चाहिये। नाद और बिन्दु से युक्त ओंकार के उच्चारण को विद्वान् पुरुष 'समानप्रणव' कहते हैं। यदि प्रतिदिन आदरपूर्वक दस हजार पंचाक्षर मन्त्र का जप किया जाय अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्त्र का ही जप किया जाय तो उसे शिवपद की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिये। ब्राह्मणों के लिये आदि में प्रणव से युक्त पंचाक्षर मन्त्र अच्छा बताया गया है। कलश से किया हुआ स्नान, मन्त्र की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास, सत्य से पवित्र अन्तःकरण वाला ब्राह्मण तथा ज्ञानी गुरु - इन सबको उत्तम माना गया है।
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