धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
भुवनेश्वरी
'देवी भागवत' में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी, हृल्लेख (ह्वी) मंत्र की स्वरूपा शक्ति और सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं। इन जगदंबा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंगकांति अरुण है। भक्तों को अभय तथा समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका सहज-स्वाभाविक गुण है। भुवनेश्वरी दश महाविद्याओं में पांचवें स्थान पर परिगणित होती हैं।
‘देवी भागवत' के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। ईश्वर रात्रि में जब ईश्वर के जगद्रूप व्यवहार का लोप हो जाता है तब केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ विद्यमान रहता है। अतः ईश्वर रात्रि की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती हैं। अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध हैं। अंकुश नियंत्रण का प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्ति का प्रतीक है। इस प्रकार सर्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी हैं जो विश्व का वमन करने के कारण 'रौद्री' कही जाती हैं। श्री शिव का वाम भाग ‘भुवनेश्वरी' कहलाता है। भुवनेश्वरी के संग से ही सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है।
‘महानिर्वाण तंत्र' के अनुसार संपूर्ण महाविद्याएं भगवती भुवनेश्वरी की सेवा में सदा संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामंत्र इनकी सदैव आराधना करते रहते हैं। दश महाविद्याएं ही उनकी सोपान हैं। काली तत्व से निर्गत होकर कमला तत्व तक की दस स्थितियां हैं जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्मांड का रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमला से अर्थात व्यक्त जगत से क्रमश: लय होकर काली रूप में मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिए इन्हें काल की ‘जन्मदात्री' भी कहा जाता है।
'दुर्गा सप्तशती' के ग्यारहवें अध्याय के मंगलाचरण में कहा गया है कि मैं भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता हूं। उनके श्रीअंगों की शोभा प्रात:काल के सूर्यदेव के समान अरुणाभ है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है।
इसी प्रकार ‘बृहन्नील तंत्र' की यह धारणा पुराणों के विवरणों से भी पुष्ट होती है कि प्रकारांतर से काली और भुवनेश्वरी-दोनों में अभेद है। अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं। देवी भागवत' के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचार से संतप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्वकारण स्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हो गईं। वे अपने हाथों में बाण, कमल-पुष्प तथा शाकमूल लिए हुए थीं।
भगवती भुवनेश्वरी ने अपने नेत्रों से अश्रुजल की सहस्र धाराएं प्रकट कीं। इस जल से भूमंडल के सभी प्राणी तृप्त हो गए। समुद्रों तथा सरिताओं में अगाध जल भर गया और समस्त औषधियां सिंच गईं। अपने हाथ में लिए शाकों और फल-मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण ही वे शताक्षी तथा शाकंभरी नाम से विख्यात हुईं। इन्होंने ही दुर्गमासुर को युद्ध में मारकर उसके द्वारा अपहृत वेद देवताओं को पुनः सौंपे। भगवती भुवनेश्वरी की साधना पुत्र-प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रद है। ‘रुद्रयामल तंत्र' में इनका कवच, नील सरस्वती तंत्र' में इनका हृदय तथा 'महातंत्रार्णव' में सहस्रनाम संकलित हैं।
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