धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
षोडशी
भगवती षोडशी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रह वाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओं में इनका चौथा स्थान है। सोलह अक्षरों के मंत्र वाली इन देवी की अंगकांति उदीयमान सूर्यमंडल की आभा की भांति है। इनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। ये शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। इनके चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। भक्तों को वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर भगवती षोडशी का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से पूरित है।
जो साधक षोडशी का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता। वस्तुत: इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त मंत्रतंत्र इनकी ही आराधना करते हैं। वेद भी इनका वर्णन करने में असमर्थ हैं। ये प्रसन्न होकर भक्तों को सब कुछ दे देती हैं, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है।
प्रशांत हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हीं की शक्ति षोडशी हैं। तंत्र शास्त्रों में षोडशी देवी को पंचवक्त्र अर्थात पांच मुखों वाली बताया गया है। पूर्वादि चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें 'पंचवक्त्रा' भी कहा जाता है। इन देवी के पांचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर और ईशान शिव के पांच रूपों के प्रतीक हैं। पांचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी उन्हीं रंगों के हैं।
इन भगवती षोडशी को 'श्रीविद्या' भी माना जाता है। ललिता, राजमहेश्वरी, महात्रिपुर सुंदरी, बालापंचदशी आदि इनके अनेक नाम हैं। इन्हें आद्याशक्ति भी कहा जाता है। अन्य विद्याएं भोग या मोक्ष में से एक ही देती हैं लेकिन ये अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति–दोनों प्रदान करती हैं।
एक बार परांबा पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा, "भगवन! आपके द्वारा प्रकाशित तंत्र शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक-संताप तथा दीनता-हीनता तो दूर हो जाएंगे किंतु गर्भवास और मरण के असहाय दुख की निवृत्ति तो इससे नहीं होगी। कृपा करके इस दुख से निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई उपाय बताइए।''
पार्वती के अनुरोध पर शंकर जी ने षोडशी श्रीविद्या साधना प्रणाली को प्रकट किया। आदि शंकराचार्य ने भी श्रीविद्या के रूप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी। अतः आज भी सभी शंकरपीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी की श्रीयंत्र के रूप में आराधना चली आ रही है।
भगवान शंकराचार्य ने 'सौंदर्य लहरी' में षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि अमृत के समुद्र में मणि का द्वीप है जिसमें कल्पवृक्ष की बाड़ी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं तथा उस वन में चिंतामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है जिसमें पंचकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं। सदाशिव की नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुर सुंदरी का जो मनुष्य ध्यान करते हैं, वे धन्य हैं। भगवती के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष-दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। ‘भैरवयामल' तथा 'शक्ति लहरी' ग्रंथ में इनकी उपासना का विस्तृत वर्णन है। दुर्वासा इनके परम साधक थे। इनकी उपासना श्रीचक्र में होती है।
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