धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
किरात
भगवान शिव निर्गुण, निराकार, निरंजन और परब्रह्म परमात्मा हैं। फिर भी भक्तों के कल्याण के लिए अवतार लेकर विभिन्न प्रकार की लीलाएं करते हैं। उन्होंने अपने भक्त राजा सत्यरथ के नवजात शिशु की रक्षा के लिए भिक्षु का अवतार लिया और धौम्य के बड़े भाई उपमन्यु का हित-साधन करने के लिए सुरेश्वरावतार धारण किया। पार्वती के विवाह-प्रसंग में उन्होंने जटिल, नर्तक तथा द्विज अवतार धारण किए। द्वापर में अश्वत्थामा उनका अंशावतार हुआ जो द्रोणाचार्य का पुत्र और महाभारत का विशिष्ट पात्र था।
'महाभारत' की एक अन्य घटना में श्री शिव का किरातावतार हुआ जिसमें उन्होंने अपने भक्त नरश्रेष्ठ अर्जुन की 'मूक' नामक दैत्य से रक्षा की और युद्ध लीला में उनसे प्रसन्न होकर उन्हें अपना अमोघ पाशुपतास्त्र प्रदान किया। भगवान के इस अवतार की पावन कथा इस प्रकार है-
पांडवों के वनवास-काल की बात है। अर्जुन शस्त्रास्त्रों की प्राप्ति के लिए इंद्रनील पर्वत पर भगवान शंकर की तपस्या कर रहे थे। वे भगवान सदाशिव के पंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए तपस्या में सन्नद्ध थे। उनकी तपस्या तथा अपना हितकारी उद्देश्य देखकर देवताओं ने भगवान शंकर से उन्हें वर देने की प्रार्थना की। उधर जब दुर्योधन को अर्जुन की तपस्या की बात ज्ञात हुई तो उसने मूक नामक एक मायावी राक्षस को उनका वध करने के लिए भेजा। वह असुर शूकर का वेश धारण करके अर्जुन के समीप पहुंचा और वहां के पर्वत शिखरों एवं वृक्षों को ढहाने लगा। उसकी भयंकर गुर्राहट से दसों दिशाएं गूंज रही थीं। यह देखकर भक्त हितकारी भगवान शंकर किरात का वेश धारण कर प्रकट हुए।
शूकर को अपनी ओर आते देखकर अर्जुन ने उस पर शर-संधान किया। ठीक उसी समय किरातवेशधारी भगवान शंकर ने अपने भक्त अर्जुन की रक्षा हेतु शूकररूपधारी दानव मूक पर अपना बाण चलाया। दोनों बाण एक साथ उस शूकर के शरीर में प्रविष्ट हो गए और वह वहीं गिरकर मर गया। उसे मारकर अर्जुन ने अपने आराध्य भगवान शंकर का ध्यान किया और अपने बाणों को उठाने के लिए उस शूकर के पास पहुंचे। तभी किरातवेशधारी शिव का एक गण भी वनचर के रूप में बाण लेने के लिए आ पहुंचा। वह अर्जुन को बाण उठाने से रोककर बोला, "यह मेरे स्वामी का बाण है, जिसे उन्होंने तुम्हारी रक्षा के लिए चलाया था, परंतु तुम इतने कृतघ्न हो कि उपकार मानने के बजाय उनके बाण को चुराए ले रहे हो। यदि तुम्हें बाण की आवश्यकता है तो मेरे स्वामी से मांग लो। वे ऐसे बहुत से बाण तुम्हें दे सकते हैं।"
अर्जुन ने कहा, "यह मेरा बाण है, इस पर मेरा नाम अंकित है। इस बाण को मैं तुझे ले जाने देकर अपने कुल की कीर्ति में दाग नहीं लगवा सकता। भगवान शंकर की कृपा से मैं स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ हूं। अगर तेरे स्वामी में बल है तो वे आकर मुझसे युद्ध करें।''
दूत ने अर्जुन की कही हुई सारी बातें जाकर अपने स्वामी से कह दीं, जिसे सुनकर किरातवेशधारी भगवान शिव अपने भील रूपी गणों की सेना लेकर अर्जुन के सम्मुख आ गए। उन्हें देखकर अर्जुन ने भगवान शिव का ध्यान कर अत्यंत भीषण संग्राम छेड़ दिया। उस घोर युद्ध में अर्जुन ने भगवान शिव का ध्यान किया जिससे उनका बल बढ़ गया। तदनंतर उन्होंने किरातवेशधारी शिव के दोनों पैर पकड़कर उन्हें हवा में घुमाना शुरू कर दिया। लीलास्वरूपधारी भगवान शिव हंसते रहे। तत्पश्चात उन्होंने अपना वह सौम्य एवं अद्भुत रूप प्रकट किया जिसका अर्जुन ध्यान करते थे।
किरात का वह सुंदर रूप देखकर अर्जुन को महान विस्मय हुआ। वे लज्जित होकर पश्चाताप करने लगे। उन्होंने मस्तक झुकाकर भगवान शिव को प्रणाम किया और खिन्न मन होकर अपने को धिक्कारने लगे। उन्हें पश्चाताप करते देखकर भक्त-वत्सल भगवान महेश्वर का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने कहा, “पार्थ! तुम तो मेरे परम भक्त हो। तुम्हारी परीक्षा के लिए मैंने ऐसी लीला रची थी। हे पांडव श्रेष्ठ! मैं तुमसे परम प्रसन्न हूं, तुम वर मांगो।''
यह सुनकर प्रसन्न मन अर्जुन ने अपने आराध्य भगवान शिव की वेदसम्मत स्तुति की। भगवान शिव के पुनः ‘वर मांगो' कहने पर उन्होंने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक गद्गद वाणी में कहा, ''हे विभो ! मेरे सभी संकट तो आपके दर्शन से ही दूर हो गए हैं। अब जिस प्रकार मुझे परासिद्धि प्राप्त हो सके, वैसी कृपा कीजिए।"
पांडु-पुत्र अर्जुन में अपनी अनन्य भक्ति देखकर भगवान महेश्वर ने उन्हें अपना पाशुपत नामक महान अस्त्र प्रदान किया और समस्त शत्रुओं पर विजय पाने का आशीर्वाद दिया। इस प्रकार भगवान शंकर के किरातावतार की कथा है। जो सुनने-सुनाने से समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाली है।
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