धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
कालभैरव
धर्मसेतु की प्रतिष्ठापना करने वाले, स्वभक्तों को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले और काल को भी कंपा देने वाले प्रचंड तेजोमूर्ति श्री कालभैरव भगवान शंकर के पूर्णावतार हैं जिनका अवतरण पंचानन ब्रह्मा एवं विष्णु के गर्वापहरण के लिए हुआ था। भैरवी-यातनाचक्र में तपा-तपाकर पापियों के अनंतानंत पापों को नष्ट कर देने की विलक्षण क्षमता उन्हें प्राप्त है।
देवमंडली सहित देवराज इंद्र और ऋषिमंडली सहित देवर्षि नारद श्री भैरव की स्तुति करके अपने को धन्य मानते हैं। उनकी महिमा अद्भुत है। उनकी लीलाएं विस्मयकारिणी हैं। उन महिमावान के चरणों में शीश नवाते हए यहां उनका संक्षिप्त आख्यान प्रस्तुत किया जा रहा है-
एक बार सुमेरु पर्वत के मनोरम शिखर पर ब्रह्मा और शिव जी बैठे हुए थे। तभी परमतत्व की जिज्ञासा से प्रेरित होकर समस्त देव और ऋषिगण वहां जा पहुंचे। उन्होंने श्रद्धा-विनयपूर्वक शीश झुकाकर, हाथ जोड़कर ब्रह्मा जी से निवेदन किया, "हे देवाधिदेव! कृपा करके हमें परम अविनाशी तत्व का उपदेश दें। हमारे मन में उस परम तत्व को जानने की प्रबल अभिलाषा है।''
भगवान शंकर की विश्वविमोहिनी माया के प्रभाव से मोहग्रस्त हो ब्रह्मा जी यथार्थ तत्वबोध न कराकर आत्मप्रशंसा में प्रवृत्त हो गए। वे कहने लगे, "हे समुपस्थित देव एवं ऋषिगण! आदरपूर्वक सुनें- मैं ही जगच्चक्र का प्रवर्तक, संवतर्क और निवर्तक हूं। मैं धाता, स्वयंभू, अज, अनादि ब्रह्म तथा एक निरंजन आत्मा हूं। मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है।''
सभा में विद्यमान भगवान विष्णु को ब्रह्मा की आत्मश्लाघा अच्छी नहीं लगी। अपनी अवहेलना किसे अच्छा लगती है? उन्होंने अमर्ष भरे स्वर में प्रतिवाद किया, ''हे धाता! आप कैसी मोह भरी बातें कर रहे हैं? मेरी आज्ञा से ही तो आप सृष्टि कार्य में प्रवृत्त हैं। मेरे आदेश की अवहेलना कर किसी की प्राण रक्षा कदापि संभव नहीं है।''
फिर पारस्परिक विवाद-क्रम से आरोप-प्रत्यारोप का स्वर उत्तरोत्तर तीखा होता गया। विवाद समापन-क्रम में जब वेदों से साक्ष्य मांगा तो उन्होंने शिव को परमतत्व अभिहित किया। माया विमोहित ब्रह्मा तथा श्री विष्णु को वेद-साक्ष्य रास नहीं आया। वे बोल पड़े, "अरे वेदो ! तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो गया क्या? भला अशुभ वेशधारी, धूलि-धूसर, पीतवर्ण, दिगंबर तथा रात-दिन शिवा के साथ रमण करने वाले शिव परमतत्व कैसे हो सकते हैं?
वाद-विवाद के कटुत्व को समाप्त करने हेतु प्रणव ने मूर्तरूप धारण कर भगवान शिव की महिमा प्रकट करते हुए कहा, “लीलारूपधारी भगवान शिव अपनी शक्ति के बिना कभी रमण नहीं कर सकते। वे परमेश्वर शिव जी स्वयं सनातन ज्योति स्वरूप हैं और उनकी आनंदमयी 'शिवा' नामक शक्ति आगंतुक न होकर शाश्वत है। अतः आप दोनों अपने भ्रम का परित्याग करें।''
ॐकार के निर्धात वचनों को सुनकर भी प्रबल भवितव्यता वश ब्रह्मा एवं विष्णु का मोह दूर नहीं हुआ। ऐसे में उस स्थल पर एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई जो भूमंडल से लेकर आकाश तक परिव्याप्त हो गई। उसके मध्य में दोनों ने एक ज्योतिर्मय पुरुष देखा। तब ब्रह्मा के पांचवें मुख ने कहा, “हम दोनों के बीच में यह तीसरा कौन है जो पुरुषरूप धारण किए है?"
विस्मय को अधिक सघन करते हुए ज्योतिपुरुष ने त्रिशूलधारी नीललोहित स्वरूप धारण कर लिया। ललाट पर चंद्रमा से विभूषित उस दिव्य स्वरूप को देखकर भी ब्रह्मा जी का अहंकार पूर्ववत रहा। वे पहले की तरह बोल पड़े, आओ-आओ वत्स चंद्रशेखर, आओ। डरो मत। मैं तुम्हें जानता हूं। पहले तुम मेरे मस्तक से पैदा हुए थे। रोने के कारण मैंने तुम्हारा नाम 'रुद्र' रखा है। मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।''
ब्रह्मा जी की गर्वमयी बातें सुनकर भगवान शिव कुपित हुए। उन्होंने भयंकर क्रोध में आकर 'भैरव' नामक पुरुष पैदा किया और ब्रह्मा को दंडित करने का प्रथम कार्य सौंप दिया। उनका नामकरण करते हुए भगवान शिव ने व्यवस्था दी, "त्वत्तो भेष्यति कालोऽपि ततस्त्वं कालभैरवः। अर्थात हे महाभाग! काल भी तुमसे डरेगा, इसलिए तुम्हारा विख्यात नाम ‘कालभैरव' होगा।''
तत्पश्चात उसके अन्य नामों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, ''तुम काल के समान शोभायमान हो, अतः तुम्हारा नाम 'कालराज' रहेगा। तुम दुष्टों का मर्दन करोगे, इसलिए तुम्हारा नाम 'आमर्दक' होगा। भक्तों के पापों का तत्काल भक्षण करने की सामर्थ्य से युक्त होने के कारण तुम्हारा नाम 'पापभक्षण' होगा।'' तदनंतर भगवान शिव ने उसी क्षण उन्हें काशीपुर का आधिपत्य सौंप दिया और कहा, "मेरी मुक्तिदायिनी काशीनगरी सभी नगरियों से श्रेष्ठ है। हे कालराज! आज से वहां तुम्हारा सदैव आधिपत्य रहेगा।''
इस प्रकार भगवान शिव से वरदान प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी बाई उंगली के नख से शिव निंदा में प्रवृत्त ब्रह्मा जी के पांचवें मुख को काट दिया। यह विचार कर कि पापी अंग का शमन अभीष्ट है। वह पांचवां मुख उनके हाथ में आकर गिरा। इस घटना से भयभीत विष्णु और ब्रह्मा जी शतरुद्री का पाठ करके भगवान शिव से कृपा याचना करने लगे। दोनों का अभिमान नष्ट हो गया। उन्हें यह भली-भांति ज्ञात हो गया कि साक्षात शिव ही सच्चिदानंद, परमेश्वर और गुणातीत परब्रह्म हैं। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर शिवजी ने श्री भैरव को श्री ब्रह्मा-विष्णु के प्रति कृपालु होने की सलाह दी, "हे नीललोहित भैरव! तुम श्री ब्रह्मा और विष्णु का सतत सम्मान करना। ब्रह्मा जी को दंड देने के क्रम में तुम्हारे द्वारा उन्हें कष्ट पहुंचा है, अतएव लोकशिक्षार्थ तुम प्रायश्चित स्वरूप ब्रह्महत्या निवारक कापालिक व्रत का आचरण कर भिक्षावृत्ति धारण करो।"
भगवान भैरव प्रायश्चिताचरण-लीला में तत्काल प्रवृत्त हो गए। ब्रह्महत्या विकराल स्त्री रूप धारण कर उनका अनुगमन करने लगी। त्रैलोक्य भ्रमण करते हुए जब भगवान भैरव वैकुंठ पहुंचे तो भगवान विष्णु ने उनका स्वागत-सत्कार करते हुए भगवती लक्ष्मी से उन्हें भिक्षा दिलवाई।
तदनंतर भिक्षाटन करते हुए भगवान भैरव वाराणसीपुरी के 'कपालमोचन' नामक तीर्थ पर पहुंचे। तभी उनके हाथ में संसक्त कपाल छूटकर गिर गया और वह ब्रह्महत्या पाताल में प्रविष्ट हो गई। अपना प्रायश्चित पूरा करके वे वाराणसीपुरी की पूर्ण सुरक्षा का दायित्व संभालने लगे। बटुक भैरव, असि भैरव, आनंद भैरव आदि उनके विविध अंश-स्वरूप हैं। उनकी महिमा वर्णनातीत है। वे भगवान शिव के आदेश - तत्र ये पातकिनरास्तेषां शास्ता त्वमेव हि - का अनुपालन कर रहे हैं। उनकी महिमा के विषय में भगवान विष्णु कहते हैं कि ये धाता, विधाता, लोकों के स्वामी और ईश्वर हैं। ये अनादि, सबके शरणदाता, शांत तथा छब्बीस तत्वों से युक्त हैं। ये सर्वज्ञ, सब योगियों के स्वामी, सभी जीवों के नायक, सभी भूतों की अंतरात्मा और सबको सब कुछ देने वाले हैं।
भगवान भैरव का अवतरण अगहन मास की अष्टमी तिथि (कृष्णपक्ष) को हुआ था, अतः उक्त तिथि को उनकी जयंती धूमधाम से मनाई जाती है। उक्त तिथि को भक्तिभावपूर्वक उनकी पूजा करने से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। स्वयं भगवान शिव ने भैरव-उपासना की महिमा बताते हुए पार्वती से कहा, ''हे देवी! भैरव का स्मरण पुण्यदायक है। यह समस्त विपत्तियों का नाशक, समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाला तथा साधकों को सुखी रखने वाला है। साथ ही लंबी आयु प्रदान करता है और यशस्वी भी बनाता है।"
मंगलवारयुक्त अष्टमी और चतुर्दशी को कालभैरव के दर्शन का विशेष महत्व है। वाराणसीपुरी की अष्ट दिशाओं में स्थापित अष्ट भैरवों-रुरु भैरव, चंड भैरव, बटुक भैरव, असितांग भैरव, कपाल भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत्त भैरव तथा संहार भैरव का दर्शन-आराधना अभीष्ट फलप्रद है। रोली, सिंदूर, रक्त चंदन का चूर्ण, लाल फूल, गुड़, उड़द का बड़ा, धान का लावा, ईख का रस, तिल का तेल, लोबान, लाल वस्त्र, भुना केला तथा सरसों का तेल-ये भैरव जी की प्रिय वस्तुएं हैं, अतः इन्हें भक्तिपूर्वक समर्पित करना चाहिए।
भगवान भैरव शाक्त साधकों के भी परमाराध्य हैं। ये भक्तों की प्रार्थना भगवती दुर्गा के पास पहुंचाते हैं। देवी के प्रसिद्ध 52 पीठों की रक्षा में ये भिन्नभिन्न नाम-रूप धारण कर अहर्निश साधकों की सहायता में तत्पर रहते हैं। प्रतिदिन भैरव जी की आठ बार प्रदक्षिणा करने से मनुष्यों के सर्वविध पाप विनष्ट हो जाते हैं। ऐसे महाप्रभु भैरव समस्त जनों के पाप-ताप का शमन करें।
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