धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
चंद्र देवता
चंद्रदेव निशा (रात्रि) में अपनी शुभ्र-शीतल चांदनी से आकाश मंडल और भूलोक को प्रकाशित करते हैं, इसलिए ये निशापति' कहलाते हैं। चंद्रदेव का गौर वर्ण है। इनके वस्त्र, रथ और रथ में जुते अश्व भी श्वेत रंग के हैं। ये अपने रथ में कमलासन पर विराजमान हैं। इनके सिर पर दिव्य मुकुट और गले में मोतियों की माला सुशोभित है। इनके दो हाथ हैं। एक हाथ में गदा और दूसरे हाथ में वरमुद्रा है। ये सभी ग्रहों में सबसे अधिक तीव्रगामी हैं।
ज्योतिष के अनुसार नवग्रहों में चंद्र का दूसरा स्थान है और ये कर्क राशि के स्वामी हैं। वेद के अनुसार चंद्रदेव विराट पुरुष के मन हैं, इसलिए ये मन के अधिष्ठात्र देवता हैं। चंद्र अमृत रूप हैं, इसलिए इन्हें 'सुधाकर' भी कहा जाता है। अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र-मंथन करने पर चौदह रत्नों में लक्ष्मी और चंद्रदेव भी निकले थे, अत: चंद्रदेव लक्ष्मी के भाई हैं। चूंकि लक्ष्मी जी जगज्जननी माता जगदंबा हैं, इसलिए ये हमारे 'चंदा मामा' हैं।
‘श्रीमद् भागवत' के अनुसार चंद्रदेव ब्रह्मा जी के मानस पुत्र महर्षि अत्रि और अनुसूया के पुत्र हैं। भगवान शंकर की कृपा से इन्हें चंद्रलोक का राज्य प्राप्त हुआ। द्वापर के अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने चंद्रवंश में ही अवतार लिया था, इसलिए वे सोलह कलाओं से युक्त कहे जाते हैं।
प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी आदि सत्ताईस कन्याओं का चंद्रदेव से विवाह किया। उनकी पत्नियां सत्ताईस नक्षत्रों के नाम से जानी जाती हैं।'महाभारत' के अनुसार चंद्र की पत्नियां शील-सौंदर्य से संपन्न पतिव्रता हैं। पत्नियों के साथ चंद्रदेव परिक्रमा करते हुए प्राणियों का पोषण और महीनों का विभाग करते हैं। इनका एक पुत्र है-बुध।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चंद्र मंडल वर्षा-जल का आधार है। समुद्र में ज्वार-भाटा चंद्रमा के कारण ही आता है। वैज्ञानिकों का कथन है कि चंद्रमा पृथ्वी के अधिक निकट है, इसलिए चंद्रमा अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति से समुद्र के जल को अपनी ओर खींचता है। समुद्र-जल का उठना-गिरना ही ज्वार-भाटा कहलाता है। साहित्यिक मान्यता है कि पूर्ण चंद्र के मनोहारी रूप पर मुग्ध होकर समुद्र उसे अपनी गोद में लेने के लिए अपनी लहर रूपी बांहों को ऊपर उठाता-गिराता है, वही ज्वार-भाटा है।
समुद्र-मंथन से निकले अमृत को भगवान विष्णु मोहिनी रूप धारण करके बांट रहे थे। एक पंक्ति में देवता बैठे थे और दूसरी में असुर। वे असुरों को सुरा और देवों को अमृत पिला रहे थे। यह देख दैत्य राहु अमृत पीने के लिए देव वेश रखकर देवों की पंक्ति में बैठ गया और अमृत पी लिया। तभी चंद्रमा ने भगवान को संकेत कर दिया। ऐसे में उन्होंने चक्र से राहु का सिर काट दिया लेकिन अमृत पी लेने के कारण वह नहीं मरा। राहु पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा को ग्रास करना चाहता है, उसके इस कृत्य को चंद्रग्रहण कहते हैं।
चंद्रदेव की उपासना से कफ रोग और वीर्य दोष का नाश होता है तथा मन में एकाग्रता आती है। योग शास्त्र के अनुसार चंद्रबिंब में मन का संयम करने से भूमंडल की समस्त घटनाओं का ज्ञान हो जाता है। अशुभ चंद्र ग्रह की शांति के लिए सोमवार को व्रत, शिव जी की उपासना और मोती धारण करना चाहिए।
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