धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा
संपूर्ण जगत का ईश्वर एक है, किंतु कर्मभेद (जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार) से उसके तीन भेद हैं-ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश। ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता और शिव संहारकर्ता हैं। इनकी शक्तियां (सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा) इनके कार्य में सहयोग करती हैं। ये तीनों ईश्वर स्वरूप ही हैं। ये 'त्रिदेव' कहलाते हैं और समस्त देवों में प्रधान देव हैं। इनमें से प्रथम देव प्रजापति ब्रह्मा का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
प्रलय के समय चारों ओर जल ही जल था। उस अगाध जल में शेषशायी भगवान विष्णु की नाभि से एक लाल कमल खिला और उस कमल पर एक बालक बैठा था। बालक ने मन ही मन सोचा, ‘मैं कौन हूँ? कहां से आया हूं?' उसने चारों ओर देखने की इच्छा की तो वह चतुर्भुज हो गया। चारों ओर देखने पर उसे कमल और जल के सिवा कुछ भी नहीं दिखाई दिया।
मन में उठे प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए उसने कमल नाल में प्रवेश किया। सहस्रों वर्ष तक कमल नाल में नीचे जाने पर भी जब उसका अंत न मिला तो वह वापस आकर कमल पर ही बैठ गया। तभी उसे आकाशवाणी सुनाई दी कि तप करो। आकाशवाणी को सुनकर ब्रह्मा कमल पर बैठे-बैठे तप करने लगे। तप करते-करते उन्हें वर्षों बीत गए तब कहीं जाकर उन्हें भगवान विष्णु ने दर्शन दिए और उनकी जिज्ञासा शांत की। साथ ही उन्हें सृष्टि रचने का आदेश दिया।
सृष्टि-कर्म करने में तो ब्रह्मा जी की स्वाभाविक रुचि है। भगवान विष्णु की आज्ञा शिरोधार्य करके वे मानसिक सृष्टि करने लगे। मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वसिष्ठ, नारद, दक्ष और भृगु ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। ब्रह्मा जी मानसिक (मन से) सृष्टि करने में लगे हुए थे किंतु अपेक्षित सृष्टि नहीं हो रही थी। फिर क्या करें? ब्रह्मा जी ने अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दिया। दाएं भाग से पुरुष और बाएं भाग से स्त्री को उत्पन्न किया। पुरुष का नाम मनु और स्त्री का नाम शतरूपा पड़ा। सृष्टि के आदि में स्त्री-पुरुष का यह पहला जोड़ा था। उस जोड़े ने मैथुनी-सृष्टि प्रारंभ की। फलस्वरूप सृष्टि का प्रवाह बढ़ने लगा। मनु की संतान होने के कारण हम 'मनुष्य' कहलाते हैं।
वीणाधारिणी सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी हैं। वे सभी विद्याओं की स्वामिनी हैं। वही मनुष्यों में कला, विद्या, ज्ञान तथा काव्य प्रतिभा का प्रकाश करती हैं। विश्व में सुख-सौंदर्य उन्हीं की देन है। विद्वान उनके चरणों में अपना मस्तक नवाते हैं और कवि काव्य रचना के प्रारंभ में प्रथम काव्यार्थ्यं समर्पित करते हैं।
ब्रह्मा जी असुरों के उपास्य देव रहे हैं। वे बहुत कठोर तप करने पर ही प्रसन्न होते हैं और उपासक को मनचाहा वरदान देते हैं। बड़े-बड़े राक्षसों ने हजारों वर्ष कठोर तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर उनसे मनोवांछित वर प्राप्त किया। जब-जब राक्षसों ने उनके द्वारा दिए वर का दुरुपयोग किया तब-तब सृष्टि का संतुलन बनाए रखने के लिए उन्हें बार-बार क्षीरसागर में जाकर भगवान विष्णु से प्रार्थना करनी पड़ी।
अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिए वे समय-समय पर अवतार भी लेते रहे हैं। उनकी महिमा और लीलाओं से पुराण भरे पड़े हैं। स्वर्गाधिपति इंद्र तथा विरोचन ने ब्रह्मा जी से ही तत्वज्ञान प्राप्त किया। लोक-कल्याणरत नारद जब किसी समस्या में फंस जाते हैं तब इन्हीं के पास जाकर उपाय पूछते हैं।
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