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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15403
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

13

उन्हें बस काम से ही मतलब है।

सुनकर वाकई बुरा लगता है सागर को। यह भी लगता है कि नानी के दिल में आंख की लाज नहीं हैं और वे स्वार्थी हैं। थोड़ी-बहुत भाटे जैसी। वे तो अरुणेन्द्र की भाभी हैं, दो-चार मीठी बातें बोलें तो हर्ष ही क्या है?  

थोड़ी देर पहले सागर का सोच इन्हीं बातों के गिर्द मंडराता रहा था। अरुणेन्द्र एक झोली चावल लेकर आए थे। काला आदमी धूप से झुलसकर कोयले जैसा दिख रहे थे।

झोली नीचे रखकर बोले, “इसमें थोड़ा-सा बासमती अरबा चावल है।"

नानी ने लकड़ी के टुकड़ों की तरह शब्द उछाले, “बासमती अरबा चावल का ऑर्डर किसने दिया था?"

अरुणेन्द्र बोले, “नहीं-नहीं, बात यह है कि हाट में मिल गया इसलिए ले आया।”

नानी ने पहले की नाईं भाटे की तरह कहा, "खैर, अब आ गया तो रहने दो, फिर कभी नहीं आना चाहिए। अरबा चावल तो सिर्फ मैं ही खाती हूं। बासमती की जरूरत नहीं है।”

अरुणेन्द्र उसी धूप में सिर का पसीना पोंछते हुए चले गये।

देखकर नानी पर बड़ा ही गुस्सा आया था सागर को।

अभी सागर पर यही बदनामी थोप रही है लतू।

सागर बोला, “कलकत्ता के लड़के सभ्य और भद्र होते हैं, यह तुमसे किसने कहा?"

“ऐसा ही सोचती थी।"

लतू जरा मुसकराकर कहती हैं, “अब नहीं सोचूंगी। नमूना देख लिया। जैसा बड़ा भाई, वैसा ही छोटा भी।”

बड़ा भाई !

भैया का जिक्र क्यों कर रही है?

सागर चिहुंककर कहता है, “भैया के बारे में तुम कितना जानती हो?”

“जानने में कितनी देर लगती है?” लतू उदासी भरे स्वर में कहती है, "रास्ते में देखता है तो ऐसा भाव ओढ़ लेता है जैसे पहचानता ही नहीं।"

"भैया में उसी प्रकार का एक अनमनापन रहता है।"

"फिर क्या सात खून माफ ! यही जो मैं तुझे एक मुक्का मार रही हूं, यह क्या मेरा स्वभाव है?"

लतू सचमुच ही बात करते-करते मंझोले किस्म का एक मुक्का भार बैठती है।

सागर ने जिन्दगी में कभी इस तरह की दुःसाहसी लड़की नहीं देखी है। गांव की लड़कियां क्या इसी तरह की होती हैं? माना मां पुराने जमाने की औरत है। दूसरी-दूसरी औरतें भी मां से मिलने आती हैं।

उन लोगों के साथ लड़कियां नहीं आती हैं क्या? लतू की हमउम्र लड़कियां भी आती हैं। कोई आख उठाकर बात तक नहीं करती।  

मगर लतू इसी तरह की शैतानी करती रहती है। उसकी मां डांटती-फटकारती नहीं है?

मुक्का खाकर सागर को भयंकर क्रोध आना चाहिए था, पर वैसा क्रोध नहीं आया।

उसकी पीठ के बिचले हिस्से में चिनचिना जैसा कुछ महसूस होने लगा। वह चोट लगने की या किसी और ही तरह की अनुभूति है, सागर इसका अनुमान नहीं लग पा रहा है।

अत: सागर वहां से हटकर चले जाने के बजाय अकड़कर खड़े होने की भंगिमा के साथ बोला, "तुम्हारी मां तुम्हें डांटती-फटकारती नहीं है?"

लतू चन्द लमहों तक सागर की ओर ताकती रहीं। उसके बाद एक अजीब किस्म की हंसी हंसते हुए बोली, “हो सकता है डांटती फटकारती होंगी, पर समझ नहीं पाती हूं।”

सागर कांप उठा।

सागर को इस हंसी के माध्यम से ही पता चल गया कि लतू की मां जिन्दा नहीं है।

सागर को क्रोध की अपेक्षा शर्म को ही ध्यादा अहसास हुआ। छि:-छिः ! सागर ने ऐसी बात क्यों कही? अगर न बोलता तो लतू के दुःख का दरवाजा हिलती-डुलता नहीं।

मगर सागर कुछ बोल भी नहीं पा रहा है।

क्या बोलेगा?

दुःख प्रकट करेगा? सांत्वना देगा? धत्त !

सागर चुप्पी साधे उसके साथ चलने लगा।

लतू की भी वही स्थिति है।

थोड़ी देर बाद लतू बोली, "गुस्सा गया तू?"

"गुस्साऊंगा क्यों? वाह !"

“यही जो मुक्का मारा इसलिए।''

"अरे, ऐसा तो मजाक में किया।"

“खैर, समझा तो सही।”

लतू एक लम्बी सांस लेती है।

सागर हिल-डुलकर खड़ा होता है, पैट के दोनों तरफ का हिस्सा खींचकर, कमर पर हाथ फेरता है, उसके बाद कहता है, “सच कहता हूं, मुझे मालूम नहीं था।”

उससे ज्यादा वह बोल नहीं सका। हालांकि सागर को इच्छा हो रही थी कि सांत्वना देने के वास्ते लतू के कंधे पर अपना हाथ रखे।

नहीं, इस इच्छा को कार्य-रूप में परिणत करना सागर के लिए संभव नहीं है।

वह खुशमिजाज, ही-ही कर हंसने वाली लड़की है, पर सागर लतू को अपने-आपसे ऊंचे स्तर को समझता है।

लतू तो मात्र स्कूल फाइनल पास है।

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