नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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यह बात जान चुका है। इसके अलावा लतू उससे सिर्फ आठ महीने बड़ी है।
फिर इतनी बड़ी क्यों लगती है? इसलिए कि लतू साड़ी पहनती है?"
या अपने उस बहुत बड़े जूड़े के कारण जिसे खोलकर फैला देने से उसकी पूरी पीठ ढंक जाती है?
या अपने उन गोरे-चिट्टे पुष्ट हाथों के चलते? जिन हाथों के कारण चलने के दौरान देह की दोनों ओर एक थिरकन की लहरे पछाड़ खाने लगती हैं? या फिर अपने गठे हुए शरीर के कारण? सागर खुद बहुत दुबला-पतला है।
मां कहती है, “दिन-दिन यह लड़का ताड़ के पेड़ पैसा लम्बा हो रहा है। काश, मोटापे में थोड़ी-सी वृद्धि होती ! चूंकि कपड़े-लत्ते पहनै रहता है तू वरना पिद्दी जैसा लगता।''
खुद की कमी के कारण ही क्या स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट लतू को वह अपने आपसे ऊंचे स्तर का समझता है? इसके अलावा और कुछ सोचने का साहस नहीं होता है सागर को।
लतू ही आगे-आगे चल रही थी।
इसलिए नहीं कि सागर पैदल नहीं चल पा रहा था, बल्कि इसलिए कि लतू रास्ते से परिचित है और सागर अपरिचित।
लतू बोली, "वह तो मेरे छुटपन में ही चल बसी है।"
“तो फिर किसने तुम्हारा लालन-पालन किया है? किसने तुम्हें आदमी बनाया है?”
"आदमी?”
लतू फिर ही-ही हंस पड़ती है," ‘आदमी' कहां हो पायी? ‘आदमी' होती तो रास्ते में ही-ही कर हंसती? सभी के घर में तुझे आदमी बनी लड़कियां देखने को मिलेंगी। वे सभ्य-भव्य-शान्त हैं। हां, पालन-पोषण करने के बारे में पूछ सकता है। यह काम बुआ ने किया है। मां के मरने के बाद बुआ यदि दूध नहीं पिलाती, धर-पकड़कर नहीं नहलातीधुलाती, भात खिलाकर नहीं सुलाती तो बहुत पहले ही मैं दम तोड़ चुकी होती।"
सागर ने सचमुच ही इस तरह की अजीब बातें बोलने वाली लड़की नहीं देखी है। सागर की बुआ के भी एक लड़की है-तकरीबन इसी उम्र की। सभी उसे नम्बरी शोख कहते हैं, बातूनी कहते हैं, फिर भी इस तरह की नहीं है।
लतू के अन्दर एक गहरा दुःख है, लतू उसे दबाकर रखने के वास्ते ही इस तरह ही ही कर हंसती है।
"लतू तुम्हारे बाबूजी?"
पूछने पर सागर को फिर भय का अहसास होता है।
हो सकता है लतू के पिता भी न हों।
लेकिन सागर का भय दूर हो गया। लतू बोल पड़ी, “बाबूजी? बाबूजी सिउड़ी में रहते हैं।"
सागर ने इत्मीनान की सांस ली।
लेकिन इतना ही कहकर लतू ने एकाएक खामोशी क्यों ओढ़ ली?
बहुत ज्यादा बातें सुनने पर सागर जिस प्रकार बेचैनी महसूस करता है, उसी प्रकार इस स्तब्धता पर भी उसे बेचैनी महसूस हो रही है।
दोपहर की तीखी धूप, बीच-बीच में तेज हवा का झोंका भी आकर बदन को आग की तरह झुलसा जाता है। पर हां, लतू पेड़-पौधों से ढंके छांह-भरी ऐसे स्थान से होकर चल रही है कि धूप माथे पर नहीं पड़ रही है।
सागर सोच रहा था, इसे क्या कहा जाता है।
बगीचा? जंगल? धत्त ! गांव के बीच जंगल कहां हो सकता है? हालांकि पैरों के तले सूखे पत्तों की खरखराहट जग रही है, हर तरफ सूखे पत्ते बिखरे हुए हैं, बड़े-बड़े उस किस्म के दरख्त, जिनके बारे में सागर को कोई जानकारी नहीं हैं, अपनी साखों को फैलाए असमान को एक तरह से ढंके हुए हैं, उनके तने पर तरह-तरह की लताओं के रहने से ऐसा लगता है जैसे दरख्त जटाजूट लटकाए हुए हैं।
सोचने पर सागर इस निर्णय पर पहुंचा कि इसे जंगल ही कहा जाता है।
लेकिन वे लोग कब से पैदल चल रहे हैं? इस जंगल का सन्नाटा बड़ा ही उबाऊ है। सागर ने इसके पहले इस तरह की ऊब महसूस नहीं की है।
सागर ही इस सन्नाटे को तोड़ेगा।
सागर ने कुछ देर तक सोचा, उसके बाद कहा, "तुम सिउड़ी में नहीं रहती?"
लतू जोर से सिर झटककर कहती है, "नहीं।"
थोड़ी देर बाद कती है, “कौन रहेगा बाबा वहां? सौतेली मां मुझे सुहाती नहीं है।''
सौतेली मां !
इसका मतलब विमाता।
इस्स ! लतू के अन्दर इतना दुःख है। और सागर शुरू से ही उसकी अवहेलना करता आ रहा हैं !
सागर ने हौले से लतू के कन्धे का स्पर्श किया। बोला, "मुझे इन बातों की जानकारी नहीं थी, लतू दी।"
कितने आश्चर्य की बात है, उसके मुंह से ‘लतू दी' निकल पड़ा। सागर खुद भी अचकचा उठा। सागर ने सोचकर यह कहां कहा था ! कन्धे का स्पर्श करने के कारण सागर की छाती धड़कने लगी। सब कुछ जैसे उसके अनजाने ही हो गया। 'विमाता' यन्न दी ने सागर को विचलित कर दिया है।
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