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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

10

प्रभा अभ्यासवश सुराही से गिलास में पानी ना डालकर पूरी सुराई ही मुंह से लगाकर मुंह को पूरा खोल कर पूरा पानी गटक गई। फिर हॉफ कर खाट के किनारे बैठ कर बोली, ''सारे अत्याचार क्या नजर आते हैं। इसके अलावा तुम्हारे साथ रहने का फायदा क्या है? औरत होकर जनम लेकर भी मां तो बन नहीं पाऊंगी तब देर रहना ही श्रेयस्कर है। उससे लोक-लाज जो कायम रहेगा।

हां। मेरी दूसरी पत्नी ने उस दिन ऐसी अजीब बात कर डाली।

पहले तो मैं समझ ही ना पाया। जब समझा तो पूरे शरीर में विद्युत की लहर फैल गई।

मैं दबे गले से गरजा-मतलब क्या है?

वह भी टस से मस ना हुई-बिना अविचलित हुए बोली, ''अर्थ तो साफ है। इतिहास से ही पता चल जाता है। पहली पत्नी के साथ तीन बरस काटे थे वह बांझ ही मरी और मैं भी-

मैं और तेज हो गया-मरणकाल मैं तो प्रभा ने एक भद्दा भाव चेहरे पर लाकर कहा-बच्ची तो ना थी। उस उम्र में तुम्हारी ताई जी की गोद में दो बच्चे आ गये थे। ''बड़ों की बात जाने दो। मैं कठोर बोलकर बोला-फिर दोनों की बात ही कहती हूं। मेरे भी दो बरस हो गये हैं। मेरी सत्रहवीं वर्षगांठ ब्याह के पहले ही निकल चुकी थी।

उसने इतनी स्पष्टता से गन्दा इशारा किया जिससे मेरा अंग-अंग जल उठा मैं स्वयं ही दरवाजा खोलकर निकल आया।

डरिये नहीं-मैंने ना तो रस्सी की खोज की ना जहर की। अगर ऐसा होता तो कौन इस समय धर्मावतार के दरबार में खड़ा होता? किसी तरफ उंगली उठाकर विरोधी पक्ष का वकील कहता-देखिये धर्मावतार कितना भयानक इन्सान है। एक के बाद एक ब्याह किये और बीवियों को...।

हां, उस बातूनी वकील को मैंने ही बाक्चातुरी दिखाने का मौका दिया था।

उसने भी बड़े ही रसीले ढंग से कहा था-देखिये महामान्य-उसकी प्रथमा गले में फांसी लगाकर मरी, द्वितीया को भी उसने बिना किसी दोष से त्यागा था-और...।'' अगर युक्ति दिखाई जाए तो बिना किसी दोष के पर क्या सारे दोष क्या ऊपर से नजर आते हैं? मेरी पत्नी जीवन-साथी अगर मेरे मानसिक आदर्श के अनुरूप नहीं हो तो वह भी उसे त्याग करने की वजह नहीं बन सकती?

बाद में उसका चरित्र बिगड़ गया था पर उसे मैं दोष में नहीं गिनता, उसकी वजह से अगर मेरे परिवार या वंश पर कलंक लगा तो कोई उस पर आह कर उठे तो वह काफी हास्यजनक है। क्योंकि मैंने ही जिसको त्याग दिया उसके साथ मेरे वंश का कैसा सम्बन्ध है?

लेकिन यह बात क्या मैं जिद्दी एवं कठोर पिता, ताया, चाचा को समझा सका। उस कलंक की वजह से ही मेरे ताया जी को दिल का दौरा पड़ा, पिताजी निम्न रक्तचाप के मरीज हो गये। चाचाओं ने उसी शर्म से मेरे सम्पर्क विच्छेद कर लिया।

सम्बन्ध विच्छेद के बाद उस कलकत्ते वाले मकान में रहना ना सम्भव था। किस हिसाब से रहता मैंने तो सम्बन्ध विच्छेद के बाद हिसाब-रक्षक का पद भी त्याग दिया था।

इस प्रकार एक स्त्री को त्याग करके कई चीजें त्यागनी पड़ गई थीं।

ओर उस भयावह मुहूर्त में और भी कुछ कुछ त्यागने का संकल्प ले लिया-घृणा, लज्जा, भय, नीति दुर्नीती, विवेक।

मैंने संकल्प किया इन सबके विनिमय में सुख क्रय कर लूंगा।

सब कुछ हार कर भी लोग जुआ नहीं खेलते। यथासर्वस्व बिको पर पक्का दालान नहीं बनवाते? माथे के बाल बेचकर एक दुकान नहीं सजाते?

और सब-कुछ बेचकर ही काली लड़की का ब्याह अच्छे घर अच्छे वर के साथ नहीं देते? यही सारी बातें या उदाहरण इसी संसार में ही हर पल घट रही हैं।

सर्वस्व त्याग कर 'कुछ' आ हरण या संग्रह करने का दृष्टान्त मैं दृष्टव्य करा सकता हूं और कुछ भी दिखा सकता हूं।

तभी तो अपने संकल्प को मैंने स्वाभाविक माना। यह तो कोई अजीब या संसार से पृथक् नहीं। मैंने सोचा था मेरे उन अदृश्य संस्कारों से हर पथ पर बाधा मिलती है या जिससे मुझे कोई लाभ नहीं है। उन्हीं को गिरवी रखके मैं 'आनन्द' का क्रय करूंगा।

तभी तो उस आनन्द या सुख का पथ खोजते-खोजते मैं बड़ा बाजार पहुंच गया था। बड़ा बाजार नहीं जाता तो उन बड़ी-बड़ी चीजों को कैसे बेचता, कहां से खरीददार पाता?

वहां-गली या गलियों की खाक छानते-छानते मुझे एक दिन खरीददार मिला, जिसे मैंने अपने सम्पर्दां का संग्रह 'आत्मा' को बेच दिया। तभी उसके बाद अकस्मात् मेरी मर्यादा भी बढ़ गई। मैं अमीर बन गया था।

मैंने अपने दीक्षा-गुरु से अमीर होने के सारे गुर सीख डाले, तभी तो अमीर में क्रमश: बना उसके लिए कई सीढ़ियां भी चढ़नी पड़ीं। पर मैं चढ़ता ही चला गया। मेरे अमीरीपन का पता आपको भी लगेगा।

यह सोचकर आप आश्चर्य कर सकते हैं, मैं कचहरी में क्यों खड़ा हूं? यह तो देखा जाता है कि लक्ष्मी जी की जिस पर कृपा होती है उसे इस प्रांगण में खड़े नहीं होना पड़ता। यह तो मैं भी जानता हूं।

इसका कारण यह है पहले ऐसा अपराध भी नहीं हुआ-

मैं इस अरण्य रूपी संसार के उन बाघ, सिंहों, सूअर, जंगली कुत्तों से जूझता जा रहा था जो इन्सान की चमड़ी ओढ़ कर घूमते हैं।

अब मैंने जान-बूझकर ही सर्कस के खिलाड़ियों का कलेजा लेकर अपने आप को बाघ के सामने समर्पित कर दिया है। नहीं तो मैंने यौवनावस्था की सीमा पार करने के बाद भी यौवन जैसा ही शक्ति व मनोबल अटूट रखा है।

आप अगर यह सोच रहे है उम्र हो गई है तभी मैंने आत्म-समर्पण कर दिया, आप गलती कर रहे हैं।

यह सब तो बहुत बाद की बातें हैं। पहले अतीत में चलते हैं जहां मैंने अमीर बनते-बनते काफी दोस्त भी  बना डाले। मेरे सम, असम उम्र वाले दोस्तों के समूह में एक ही मित्र ने असल मित्र की भूमिका ग्रहण की थी।

उनकी बेटी के साथ मुझे स्वतंत्रता से मिलने-जुलने का अवसर दिया। जिससे उस कन्या को प्राप्त करने का स्वर्ण अवसर मुझे मिल गया था। जिसका नाम था पौली। मेरी तीसरी पत्नी। उसने मेरा नाम अतीन से अतनू कर दिया, जिसने मेरे बालों की शैली से लेकर जीवन-यात्रा की पूरी शैली में आमूल परिवर्तन ला दिया था।

मैं भी उसी रूप में ढला जा रहा था खुशी से, नम्रतापूर्वक और उत्साहपूर्वक। इसका कारण था मैं अपना सब कुछ देकर भी 'सुख' पाना चाहता था।

मैंने अपने जीवन का अतीत पीली से न ही छिपाया बल्कि सब-कुछ खोलकर ही बताया था।

उस वक्त हमारा प्यार परवान चढ़ रहा था। स्टीमर पर चढ़ कर राजगंज गया था। दोनों ही एक-दूसरे से सट कर बैठे थे, अचानक कहा, ''पौली, मैंने अपने जीवन के बारे में तुम्हें सब नहीं बताया।''

फिर मैंने अपना दो, दो इतिहास अनावृत किया। मेरा सुर अवज्ञा एवं कौतुक का मिश्रण लग रहा था। जब मैंने बताया तो प्रतिपादन से प्रश्न एवं मंतव्य तो अवश्य मिला पर मैं सारी बातें बता सका।

खत्म कर यह भी पूछा-सब तो सुना अब बोलो मुझे ग्रहण करोगी या त्यागोगी?

मैं क्या तब तक अपना सब कुछ त्याग ना पाया? मैंने क्या पाप-बोध के भय से अपनी भावी पत्नी को अतीत इतिहास बता डाला?

ना। बिल्कुल नहीं।

मुझे यह डर था बाद में उसे पता चले तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ेगी। और वह तो पता पड़ेगा ही। मैंने रिश्तेदारों से मुंह मोड़ लिया था या उन्होंने मुझे व्यंग्य दिया था। पर ''जरूरत'' के वक्त वे दिखाई दे जाया करते।

जैसे मेरे वह सब चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई, जमाईबाबू जो मेरे अमीर बनने के बाद ऐसे मेरे पीछे घूम रहे थे जैसे मधुमक्खी अपने छत्ते के चारों ओर चक्कर लगाती है, मैं भी उन्हें झपट्टा मार कर हटा देता।

पर वे क्या शान्त होकर बैठे थे? उनसे चाहे मैं ना डरता पर पौली के व्यक्तित्व सम्पन्न पिता के मैं थोड़ा कन्टकित रहता कारण यह था कि क्योंकि मेरे व्यवसाय की कुंजी उन्हीं के पास थी। तभी तो उसकी बेटी को मैं पूरी तौर से अपने वश में करने की हर सम्भव कोशिश में लगा रहता।

इसके अलावा झूठ नहीं बोलूंगा-पौली ही उस समय मेरे लिये-सुख की प्रतिमूर्ति थी, पौली के अन्दर ही मुझे अपने आदर्श जीवन-प्रिया का आभास मिला था। पौली स्मार्ट, बुद्धिमति तो थी साथ में बिना किसी की परवाह किये स्वयं को स्थापित करने की कला जानती और जानती थी अपने आपको आकर्षणीय बनाने की तरकीब।

जो-जो गुण पुरुष को मोहित करते हैं वे सब पौली के अन्दर मुझे दिखे।

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