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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

10

और-और दिन रात्रि-भोजन के दौरान सिर्फ माँ ही रहती हैं, इरा को माँ जबरन सोने के लिए भेज देती हैं।

लिहाजा खुले मैदान में आमने-सामने सिर्फ माँ और बेटा ही रहते हैं। माँ अविराम वाणों की वर्षा करती रहती हैं।

और पुत्र अवहेलना के साथ माँ को तुणीर खाली करने देता है-सिर्फ बदन झाड़कर तीरों को फेंकते हुए।

लेकिन हाँ, माँ यदि साहस कर अचानक अग्निबाण चला देती हैं तो पुत्र एक ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर प्रतिपक्ष को अचंभे में डाल देता है। वह ब्रह्मास्त्र और कुछ नहीं, लड़का कहता है, माँ यदि इस तरह तंग करेंगी तो वह घर छोड़ दूसरी जगह रहने को चला जाएगा।

अन्तत: माँ 'फिर तेरी जो मर्जी हो वही कर'-कहकर युद्ध समाप्ति की घोषणा कर देती हैं।

लेकिन ऐसा सिर्फ उसी दिन के लिए ही। दूसरे ही दिन फिर शुरू कर देती हैं, ''कल तो बड़े तैश में उठकर चले गए। यह तो बताओ कि कौन-सी गलत बात कही थी मैंने?''

माँ को ही दोषी कैसे ठहराया जाए? उनके मात्र दो ही पुत्र हैं और उनमें से एक बर्बादी के रास्ते पर चला जाएगा! यह बरदाश्त करना मुम्किल है। 'जहन्नुम में जाए', यह कहकर छोड़ दे? ऐसा नहीं हो सकता।

लड़का यदि एक अच्छी-सी नौकरी करे और फिर एकाएक छोड़ दे, उसके बाद फिर किसी दूसरी अच्छी-सी नौकरी करते-करते छोड़कर बेरोजगार हो जाए और यह सिलसिला लगातार चलता रहे और कारण पूछने पर बताए कि वहाँ टिकना मुश्किल हैया नौकरी स्थायी नहीं हो सकी-तो ऐसी हालत में मां खुश रह सकती है?

यदि कोई स्वेच्छा से आकर किसी पद पर बहाल करने का आग्रह करे और लड़का उसें ठुकरा दे तो माँ खुश रह सकती है? यदि 'शादी ब्याह नहीं करूँगा' इस तरह की भीष्म प्रतिज्ञा न करने के बावजूद शादी की चर्चा छिड़ते ही उसे नकार दे तो माँ खुश रह सकती हैं? चुप्पी ओढ़े कैसे रह सकती हैं?

रात्रि-भोजन के अतिरिक्त इस बहके लड़के से माँ की भेंट होती ही कब है?

सवेरे भवानी देवी की मूर्ति के पूजा-पाठ, गंगाघाट, काली घाट आदि का कार्यक्रम रहता है, उस समय रसोईघर का सारा काम इरा के मत्थे रहता है। वही खाना पकाकर दोनों भाइयों को देती है।

इतना जरूर है कि जब नौकरी करता है तो बड़े भाई के साथ बैठ खाना खाकर ऑफिस जाता है और जब बेकारी की हालत में रहता है तो दूसरा ही इन्तजाम रहता है। लेकिन रात के इन्तजाम में इरा नहीं रहती है।

आज इरा है।

इसीलिए आज अरण्य सोच रहा था कि वह अपने दिन कीं घटना का विवरण इरा को बताएगा। भैया जब तक माँ को लेकर वापस नहीं आता है, तब तक सोया नहीं जा सकता है।

खाने के बाद स्वभावतया सोने का प्रश्न खड़ा होता है और वह सुविधाजनक नहीं है। लिहाजा खाने के समय को खींचकर लंबा करने से ही सुविधा होगी। लेकिन श्यामल की पत्नी की घटना का ब्यौरा अभी देना संभवत: युक्तिसंगत नहीं होगा। लापरवाह और अहमक अरण्य को याद आया, इरा का अभी 'वो समय' चल रहा है। अत: इस वक्त उन बेतुके प्रसंगों की चर्चा न करना ही लाजिमी है।

इसका मतलब अरण्य ने इरा को इकतरफा बडबडाने का मौका दिया और इरा ने अनायास ही तकरीबन डेढ़ घण्टा समू-दा और शाश्वती के प्रसंग की चर्चा में बिता दिया कि कब शाश्वती ने कहा था, 'बिल्ली जंगल जाती है तो वनबिलाव बन जाती है-इस बात का मर्म अब अच्छी तरह समझ पाती हूँ। समझीं, इरा! कब कहा था, पुरुष क्या चाहते हैं, जानती हो इरा, वे अपने सिंहासन पर अटल रहना चाहते हैं, एक आलपिन की नोक का भी त्याग करना स्वीकार नहीं करते। लेकिन स्त्रियाँ अपना सारा कुछ त्यागकर, यहाँ तक कि जड़ भी पुरुषों के चरणों पर सौंप देती हैं।

कहा था, ''रुचि की असमानता ही संभवत: सबसे बड़ी असामनता है। जबकि बाहर से हमेशा समझना मुश्किल है।''

कहती, लेकिन दूसरे के सन्दर्भ में। निहायत कहानी के बहाने। इसका अर्थ 'स्वयं' नहीं रहती। इरा निःसंदेह विद्या-बुद्धि में शाश्वती के समकक्ष नहीं है। तो भी बीच-बीच में उसके सामने भी कहती। हो सकता है, कहने लायक आदमी न मिलने के कारण ही कहती। पर इरा क्या बिलकुल समझ नहीं पाती थी? न समझ पाती तो कैसे महसूस करती कि शाश्वती नामक उस औरत के अन्दर हमेशा एक आग जलती रहती थी।

आश्चर्य की बात है, शाश्वती के बारे में सुनते-सुनते केवल अवंती की याद क्यों आ रही है अरण्य को?

सवेरे टूटू मित्तिर ने उदास स्वर में पुकारा, ''ऐ अवंती, तुम्हारा फोन।''

पिछली रात काफी कीमत चुकाने के बाद अवंती को यह उदार स्वर खरीदना पड़ा है। 'श्यामल और श्यामल की पत्नी' को विख्यात बनाने की काफी कोशिश करनी पड़ी है। उनकी प्रतिष्ठा के साथ अरण्य की प्रतिष्ठा का भी बखान करना पड़ा है।

इसी वजह से उदार गले का र्स्वर सुनाई पड़ा, ''अवंती तुम्हारा फोन।''

अवंती ने आकर फोन उठाया। एक-दो शव्द बोलकर ही फोन रख निराशा भरे स्वर में बोली, ''न:। शायद उस औरत को जीवित नहीं रखा जा सका।''

टूटू को उसका हताशा भरा उच्छवास तनिक ज्यादती जैसा ही महसूस हुआ। ऐसी कौन-सी बात है, बाबा! कब के किसी सहपाठी की पत्नी!

इतने दिनों तक नाम भी नहीं सुना था।

तो भी असंवद्ध स्वर में पूछा, ''क्या हुआ? किसने फोन किया था?"

''श्यामल।''

''ओह, कल की वही...हाँ, तो क्या कह रहे थे?''

''कहा-कि बच्चे की हालत एकाएक बदतर होती जा रही है। ऐसा सोचा नहीं गया था। मैं जा रही हूँ, टूटू!''

''तुम जा रही हो?''

टूटू मित्तिर जैसे आसमान से गिर पड़ा, ''तुम जा रही हो, इसका मतलब?''

अवंती ने मुड़कर उसकी ओर देखा और बोली, ''जाऊँ नहीं!''

टूटू ने सोचा था, कल के उस उपकार के लिए उस आदमी ने संभवत: कृतज्ञता-ज्ञापन के-निमित्त फोन किया है। यानी अपनी ओर से पहल कर सम्बन्ध-सूत्र को आगे बढ़ाने के खयाल से। उसके बदले यह कैसी ऊटपटांग मुसीबत आकर खड़ी हो गई। तो भी कष्ट के साथ स्वयं को संयत करके बोला, ''तुमने तो अब तक ब्रेकफास्ट नहीं किया है।''

वह कोई वैसा बड़ा सवाल नहीं है।

लगा, अवंती जाने के लिए कदम बढ़ा रही है।

टूटू का दिमाग तनिक गरम हो गया, ''ऐसी हालत में बच्चे जीवित भी नहीं रहते। कहने का मतलब है। कल ही बच्चा मरी हुई हालत में पैदा हो सकता था...''

मरी हुई हालत में ही पैदा हो सकता था!

अवंती ने होंठ काट लिये। जवान में तनिक कोमलता भी नहीं है! बोली, ''तुम बल्कि कुछ और अर्थ लगा सकते हो टूटू, मैं जा रही हूँ।

इसके बाद टूटू अपने आपको संयत कैसे रख सकता है?

टूट बिगड़कर बोला, ''तुम जाकर क्या करोगी, सुनूं तो सही? तुम डॉक्टर हो? नर्स हो?''

''कुछ भी नहीं, सिर्फ एक मनुष्य हूँ। और औरत।''

''औरत। औरत हो तो क्या हुआ? कर्तव्य-पालन की एक लिमिट होनी चाहिए, अवंती। मेरा कहना है, ऐसी जगह सिर्फ सुनकर भागे-भागे जाना बेमानी है।''

''उसने दयनीय होकर खबर दी और न जाना कोई अर्थ नहीं रखता? तो फिर तुम्हारी राय में लिमिट क्या है? फोन से जरा इस्स! 'हाय-हाय' कहना ही?''

इसके अलावा करने को और क्या हो ही सकता है? हाँ, ड्राइवर के हाथ कुछ रुपये भेज दे सकती हो, जिसके लिए घबराकर सवेरे-सवेरे फोन किया है।''

अवंती के जेहन में चट से बिजली के एक झटके जैसा लगा।

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