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चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

11

पिछली रात तमाम बातों के साथ रुपए-पैसे के बारे में चर्चा चली थी। हो सकता है अवंती ने खुद को पाक-साफ रखने के खयाल से ही इस बात की चर्चा की थी। श्यामल अगर भविष्य में कृतज्ञता- ज्ञापन के निमित्त आए या कर्ज माँगने आए और टूटू मित्तिर के सामने आए तो टूटू कहेगा, मुझे कुछ मालूम नहीं। मुझसे नहीं कहा?

अलबत्ता रुपया टूटू का नहीं है।

अवंती के हाथ-खर्च के लिए अवंती का ससुर हर महीने मोटी रकम देता है, मगर ससुर तो आखिर टूटू का ही बाप है।

लेकिन अभी टूटू की इस अपमान करने वाली बात का, जो तीरों व्यंग्य से भी अधिक चुभनेवाली है, अवंती क्या उत्तर देगी?

तो भी अवंती ने शांत स्वर में कहा, ''उसने किस बात की खबर भेजी है? रुपए के लिए भेजी है?''

टूटू ने चतुराई के लहजे में कहा, ''इसके अलावा और क्या हो सकता है? ऐसी बात नहीं कि तुम उसके मरे हुए बच्चे को जीवित कर दोगी।''

''बच्चा अब भी जिन्दा है, टूटू। प्लीज, ऐसी बात मत बोलो।''

''ठीक है। नहीं कहूँगा। पर हाँ, खबर भेजने का मकसद मैं समझता हूँ और तुम भी समझती हो।''

अवंती ने कहा, ''मेरी समझने की शक्ति तुम्हारी जैसी तीक्ष्ण नहीं है। मैं ठीक से समझ नहीं पा रही। मैं जा रही हूँ।''

''उफ़! जाऊँगी कहने से ही क्या जाना हो जाएगा? सहसा ऐसी ममता क्यों उमड़ पड़ी, सुन सकता हूँ? इतने दिनों तक तुम्हारे ये श्यामल और अरण्य कहाँ थे? एक सुयोग से फायदा उठाकर पुराने प्रेम की टूटी कड़ी जोड़ने आए थे? और तुम भी-उफ़! औरतों को पहचानना मुश्किल है। लगता था जैसे...''

अवंती ने कहा, ''सिर्फ औरत ही क्यों, औरत या मर्द किसी को भी पहचानना शायद असंभव ही है। मैंने ही क्या सोचा था कि तुम इस तरह के हो। अच्छी बात है, हमने एक-दूसरे को पहचान लिया।''

अवंती बाहर निकल पड़ी।

गाड़ी लेकर नहीं, रास्ते से एक साइकिल-रिक्शा लेकर। आज रविवार है, सड़क पर बहुत सारे रिक्शा हैं।

टूटू असफल आक्रोश से कुछ देर तक उधर ताकता रहा, ताकता रहा।

अचानक धूमकेतु की तरह इस मनहूस का आविर्भाव कहाँ से हुआ? अन्दर-ही-अन्दर सम्बन्ध-सूत्र जुड़ा हुआ था। किसी दिन तो इसका पता नहीं चला था।

बड़े ही सुख के साथ दिन बीत रहे थे।

खासतौर से, मकान के बहाने माँ-बाप के पास से चले आने पर। इतना जरूर है कि यह महिला खासी मूडी टाइप की है, हमेशा टूटू की इच्छा के अनुरूप नहीं चलती, फिर भी दोनों के बीच कोई अंधकार नहीं था।

अंधकार बस इतना ही है कि अब भी बही-खाता कागज ले दिन गुजारने की इच्छा। चाहे जैसे भी हो, रिसर्च का बहाना बनाकर स्वयं को छात्रा बनाए रखने की ललक। जीवन के सुनहरे दिन इसी तरह बर्वाद कर रही है। बिलकुल बेमानी है यह।

पर हाँ, इससे टूटू को विशेष असुविधा का सामना नहीं करना पड़ता है।

टूटू तो हमेशा सदाहास्यमुखी, यत्नपरायणा, घर-संसार से जुड़ी प्रेममयी पत्नी को ही पाता आ रहा है। अपवाद है केवल जब-तब टूटू की इच्छित जगहों में घूमने-फिरने जाने से इनकार करना। इस उम्र में कोई युवती सुयोग मिलने के बावजूद नाथ देखने न जाती हो, सिनेमा-थियेटर न जाती हो, यह टूटू के लिए विस्मय-कारी है। टूटू तो किसी घटिया जगह ले जाने का प्रस्ताव नहीं रखता। सुविख्यात, कीमती स्थानों में ले जाने का ही इन्तजाम करता है, मगर अवंती को राजी करना मुश्किल है।

यहाँ तक कि टेस्ट मैच के टिकट के लिए लोग पागल की तरह मारे-मारे फिरते हैं। उस टिकट का जुंगाड़ हो जाता है तो अवंती कहती है, ''उफ, कौन जाएगा धूप में सिर तपाकर खेल देखने! घर में बैठ टी वी० पर देखना कहीं आरामदायक है। तुम अपने किसी दोस्त को साथ लेकर देखने चले जाओ।''

उसके बाद बोली थी, ''अगर वांधवी का जुगाड़ कर सको तो कितनी प्रसन्नता की बात होगी!''

घर-घुस्सर मन के अलावा और क्या कहा जाए?

हालाँकि बाधाहीन जीवन जीने के खयाल से ही टूटू अपनी राजकन्या माँ के रोब-दाव के आश्रय से हटकर चला आया था। टूटू मित्तिर की माँ अविभाजित बंगाल के एक 'राजा' खिताबधारी खानदान की लड़की है। यद्यपि विभाजन के बाद यह महिमा नहीं रहनी चाहिए थी, पर स्वयं को 'महिमान्विता' सोचे तो कौन रोक सकता है?

मणिकुंतला के अन्दर वह 'महिमान्विता' 'राजकन्या' दस्यु की नाई विराजमान है। पति-पुत्र को वे आभिजात्य के मामले में अपने समकक्ष नहीं समझतीं। उसके बाद यह बहू आई। बहू से जलने का एक कारण है कि वह विदुषी है। यह बात उनके लिए पीड़ाकारक है लेकिन उसकी बिलकुल उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। इस रस्साकशी की वजह से वे बहू से यथासाध्य दूरी बनाए रहती थीं। लेकिन जहाँ मालकिन की भूमिका का सवाल उठता, वे पूरे तौर पर उसे निभाने में पीछे नहीं हटती।

लिहाजा बेटे की इच्छा-अभिलाषा पर पानी फेरना उनका एक खास काम था। टूटू बेशक रूबरू कुछ कहने का साहस नहीं कर पाता। पिता का शरणापन्न होता। विख्यात व्यवसायी शरत मिसिर संकुचित होकर निवेदन करते, ''सुन रही हो? टूटू को किसी नृत्य समारोह का टिकट मिला है। (खरीदा नही है, मिल गया है, जैसे कोई बाँट रहा था।) सो बहूरानी के साथ देख आए तो हर्ज ही क्या हे? तुम्हारा क्या विचार है?''

मणिकुंतला उपेक्षा भरे स्वर में कहती, ''बहूरानी अभी कहाँ जाएगी? आज लक्ष्मीघर में 'पांचाली' पढ़ना है न?''

यद्यपि पांचाली पढ़ने की बात कोई अहमियत नहीं रखती क्योंकि पाँच मिनट का काम है, लेकिन उनके मुँह से निकल पड़ा है तो अब वश नहीं चल सकता।

समझ-बूझकर पाँचालीहीन दिन का चुनाव कर लेने से ही क्या होगा? किसी भी निवेदन को ठुकरा देने की सामर्थ्य है उस महिला में।

''सुन रही हो, टूटू के कुछ मित्र सपत्नीक दीघा घूमने जा रहे हें। टूटू को दल में शामिल करने के लिए बड़ा जोर डाला है। सो पत्नी को साथ ले वह भी क्यों-नही चला जाए, कहो ठीक कह रहा हूँ न? कोई दो-तीन दिन की बात तो है नहीं।''

मणिकुंतला अवज्ञा के साथ कहती, ''बहूरानी को साथ लेकर? बहूरानी दसियों मर्द के दल के साथ हुल्लडबाजी करने जाएगी?''

''अहा, उन लागों की पत्नियाँ भी तो जा रही हैं।''

''जाने दो। मेरे घर की बहू नहीं जाएगी।''

मणिकुंतला के घर की बहू सास के साथ शादीघर में भोज खाने जाएगी (तमाम अंगों को जेवरात से लादकर), धनी सगे-संबंधियों के घर पुष्पांजलि देने। दासी को साथ ले कीमती सीट पर बैठ स्टार रंगमहल में थियेटर देखने।

जाने से अनिच्छा प्रकट करे तो इसका अर्थ है-मणिकुंतला को अपमामित करना। अपमान-बोध की मात्रा उनके अन्दर तीव्रतर है। सास के सामने लिखने-पढ़ने से भी उन्हें अपमान का अहसास होता है जबकि पुत्र और बहू के साथ एक ही मेज पर बैठकर खाना खाने में उन्हें एतराज नहीं है और वह इसलिए कि संगमरमर की वह डाइनिंग टेबल मणिकुंतला के पिता के द्वारा दी गई है। इसके अलावा वह गहरे लाल रंग की गाड़ी भी उन्होंने ही अपने नाती की पत्नी को दी है। उन वस्तुओं का सद्व्यवहार आवश्यक है।

बहू एम० ए. पास है, यह मणिकुंतला के लिए फख्र की बात। बहू गाड़ी चला सकती है, यह भी मणिकुंतला के लिए गौरव की है। लेकिन गौरव कहीं हाथ से खिसक न जाए। सारा कुछ उनकी मुट्टी में रहे। क्योंकि वे उन सबों से बहुत उच्चे स्तर पर हैं, अत्यन्त गौरवमयी हैं।

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