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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

मंजरी

1

अभिमन्यु सीटी बजा रहा था।

जोर से नहीं, मृदुगंजन। बहुपरिचित एक गाने का सुर। अभिमन्यु सीटी अच्छी बजाता है। सीटी के माध्यम से गानों के सुर स्पष्ट हो उठते हैं-बोल उभर आते हैं। कब कहां किससे सीखा था कौन जाने लेकिन यह उसकी बचपन की आदत है।

हालांकि मंजरी इसे 'बुरी आदत' कहती है। उसके हिसाब से सीटी बजाना बिल्कुल ही पिछड़ेपन और शालीनता विरोधी बातों का सबूत है। वह कहती, "आजकल कोई शरीफ आदमी सीटी नहीं बजाता है।" अभिमन्यु तर्क नहीं करता है, हंसता है और जब मंजरी बहुत गुस्से में होती हैं तब सीटी बजा देता है। मंजरी और भी ज्यादा गुस्सा होकर कहती है, "हां, ठीक एक प्रोफेसर के उपयुक्त ही है।"

अभिमत्यु कहता, "लेकिन मैं छात्राओं के सामने तो सीटी नहीं बजा रहा हूं।"

"बजाते देर कितनी है? बुरी आदत कहां से कहां पहुंचती है...''

"इतने दिनों में जब उतनी दूर पहुंची नहीं है तब तुम्हारे शासनकाल में, इससे ज्यादा बढ़ सकेगी क्या?"

"पता नहीं, "मुझे बुरा लगता है।"

अभिमत्यु और मंजरी। भाभियां कहती हैं 'जोड़ा कबूतर'। प्रेम करके अभिभावकों के भारी मुंह की अवहेलना करके यह शादी हुई। फिर भी उस नितांत मनोरमा सुंदरी प्रिया के 'बुरा लगने' पर भी, जब तब सीटी बजाने लगता है अभिमन्यु, स्वच्छंद बिहारी आकाश में उड़ते पक्षी की तरह। लेकिन इस तरह से तिमंजिले पर चढ़कर बारामदे से झुककर खड़े-खड़े, नीचे सड़क पर चलते जनसमुद्र को देखते हुए, सीटी बजाते रहना, बहुत देर से बजा रहा था...पहले कभी ऐसा करते किसी ने देखा नहीं था।

जैसा कि आज दिखाई दे रहा है।

लग रहा है उसके पास आज कुछ करने को नहीं है। शायद सचमुच ही कोई काम नहीं है, हो सकता है आज कॉलेज की छुट्टी है, फिर भी दिन के दस बजे, जिस समय सारी दुनिया ने कर्मचक्र पागलों की गति से घूम रहा है, तब उसे यह कैसे आलस्य के भूत ने धर दबोचा है?

लेकिन सच कहा जाए तो, अभिमन्यु का असली परिचय देने लगे तो यह कहना ही पड़ता है कि अभिमन्यु को इसी आलस्य में आनंद आता है। एक लड़कियों के कॉलेज में हफ्ते में तीन-चार घंटे पढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता है वह। हां सिर्फ ढेरों किताबें पढ़ने के अलावा। जब कितना कुछ करने की सुविधा थी। विश्वविद्यालय में बारहों महीना इप्तहान हुआ करते हैं-इसी के साथ 'कॉपिया जांचने' का सिललिसा चलता रहता है। आदि अनंतकाल से गोबर भरे सिरों वाले लड़के लड़कियों के मां-बाप परीक्षा सागर पास करवाने के लिए 'प्राइवेट ट्यूटर' रखते हैं। अच्छे लड़के लडकियां रात भर जाग कर, सारे शरीर को झुलाते हुए अध्यापकों के लिखे 'नोट्स' अथवा 'कुंजियां' याद करते हैं। स्पष्ट है जीवन के समस्त अवसरों को निचोड़कर अर्थरस संग्रह करने की अनेक सुविधायें हैं अभिमन्यु जैसे अध्यापकों को। अभिमन्यु को भी यह अवसर मिला था।

लेकिन अभिमन्यु उसे सुविधा से फायदा न उठा सका। उठा सकेगा, ऐसा लगता भी नहीं है। वह दूसरी सुविधायें प्राप्त कर रहा है। इधर उत्तर कलकत्ते में पिता का एक तिमंजिला मकान था, जिसका निचला हिस्सा उसने किराए पर उठा दिया है। उससे कुछ कमाई हो जाती है और बाकी दोनों मंजिलों में हाथ पांव पसारकर खुद रह रहा है। इसी पैत्रिक मकान को जब दोनों बड़े भाई, अकेले अभिमन्यु को भोग करने के लिए छोड़कर, खुद कलकत्ते के बीचोंबीच एक अभिजात इलाके में मकान बना के रहने लगे, तो बेझिझक अभिमन्यु ने इस सुविधा को भोगना शुरू कर दिया। वह बेकार, अक्षम है इसीलिए भाइयों ने अपने पैत्रिक हिस्से को छोटे भाई को दाब कर दिया है इस बात की भी उसे कोई शर्म नहीं।

मकान तो अभिमन्यु को मिला ही-मकान के साथ मिलीं मां भी। मां अपने छोटे बेटे के साथ रहीं। चार बेटियां और तीन बेटों में से छ: जने तो इधर-उधर फैले बिखरे रह रहे हैं, पूर्णिमादेवी ने अपने आपको छोटे बेटे के आस-पास समेट लिया है। दूसरे बेटे बेटियां अगर मां को अपने पास ले जाना चाहते हैं तो पूर्णिमादेवी ऐसी सब काल्पनिक असुविधाओं का हवाला देती हैं कि अंत में वे लोग नाराज होकर कहना छोड़ देते हैं। अगर खुदा न खास्ता किसी के पास चली गयी तो तीन ही दिन में 'जाऊं-जाऊं' करके आफत कर देती हैं और अंत में छोटे बेटे के पास लौटकर ही चैन की सांस लेती हैं।

जबकि अभिमन्यु ही मां का कम ध्यान रखता है।

उम्र में काफी अंतर होने की वजह से मां के साथ ऐसे बातचीत करेगा जैसे कोई शरारती पोता हो। मां डांटेगी तो हंसने लगता है, नाराज होंगी तो पास लेट जाएगा और जब वह शुद्ध होकर रसोई और भंडारघर में काम करती होंगी तो उन्हें छूकर मजा लेगा।

पूर्णिमादेवी चिढ़कर गालियां देतीं, डांटती फिर भी लगता वे प्रश्रय भी देती हैं। उन्हें अच्छा लगता है। वरना पूर्णिमादेवी के छ: बच्चों ने जिस बात की हिम्मत नहीं की, वही काम अभिमन्यु कर बैठा। आराम से प्रेम कर बैठा? सिर्फ इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसी लड़की से शादी करके उसे घर ले आया। बड़े भाइयों, भाभियों, दीदियों को इकट्ठा करके भाइयों के पैसे से धूमधाम किया। झंझट मिट जाने पर बी.ए. पास पत्नी के हाथ का पका खाना मां को खिलाकर माना।

हालांकि उससे पहले शुद्धाचार का सोलहों आना पाठ कंठस्थ करवाकर माना था अध्यापक अभिमन्यु। इसीलिए मन से इस बात की संदेही पूर्णिमा आजकल की लड़कियों के हाथ से खाना ठीक होगा कि नहीं, अपने संदेह के बलबूते पर टिक न सकीं। अभि के कारण उनका धर्म कर्म बचा नहीं अंत में यही सोचकर रह गयी।

अतएव अभिमन्यु मजे से मां को तंग करता है, पत्नी को परेशान करता है, भाइयों के घर जाकर भाभियों के साथ छेड़छाड़ करता दीदियों के घर जाकर भांजे भाजियों को इतना तंग करता कि बहनोई लोगों को गुस्सा आ जाता और इन्हीं सब हरकतों के साथ-साथ साफ धोती कुर्ता पहनकर कॉलेज जाता, छात्राओं को पढ़ा आता।

उम्र में सर्वापेक्ष तरुण इस अध्यापक को छात्रायें सबसे ज्यादा आदर करतीं।

पूर्णिमा उठकर पीछे आकर खड़ी हुईं।

कुछ मिनट तक खड़ी रहीं।

देखा, अभिमन्यु को पता नहीं चल रहा है। एक ही ढंग से खड़ा होकर सड़क की तरफ देखते हुए सीटी बजाए जा रहा है। देखकर पूर्णिमा का जी जल उठा।

तीखे स्वरों में बोली, "खड़ा-खड़ा सीटी बजाते हुए शर्म नहीं आ रही है?" लगभग चौंककर पीछे मुड़ा अभिमन्यु।

मुड़कर खड़े होते ही पूरी तरह से दिखाई दिया अभिमन्यु। उसका ग्रीशियन डीलडौल वाला चेहरा पॉलिशदार ढंग से काढ़े गए बाल, सांवले रंग का उज्ज्वल मुख, लंबा दोहरा कद और जरा सी अप्रतिभ हंसी।

मां के धिक्कारने पर अप्रतिभ हंसी हंसकर अभिमन्यु बोला, "शर्म? क्यों नहीं तो?''

"शर्म, नहीं आ रही है? वह क्यों आएगी? शर्म तेरे शरीर में हो तब न।"  

"चलो। तब तो मालूम हो ही गया है।"

"चुप रह। नखरे छोड़। पूछती हूं तूने इसमें राय दी है?' अभिमन्यु मुस्कराया।

"मेरी राय देने की बात उठती कहां है मां? आज भी तुम उसी जमाने जैसी बात करती हो। नाक पर चश्मा चढ़ाकर बहुत सारे अखबार, पत्र-पत्रिकायें पढ़ा तो करती हो, क्या यह नहीं जानती हो कि हवा का रुख किधर है?"  

"बहुत हो गया, मुझे तू नए सिरे से हवा का रुख मत दिखा। जिस दिन सिर पर पांच गार्जेन के होते हुए बेझिझक अपनी पसंद की लड़की से शादी करने की बात कह सका था उसी दिन समझा चुका था कि दुनिया की हवा का रुख किधर है।"

स्पष्ट था पूर्णिमादेवी बेहद खफा हैं।

फिर भी अबोध बने रहने में ही भलाई है। इसलिए अभिमन्यु हंसा। बोला, "अरे, वह तो पिछली बातें हैं। इन तीन सालों में हवा और आगे नहीं बढ़ी है क्या? ठहर थोड़े ही गयी है।"

"हां बढ़ी है।" गुस्से से हांफने लगीं पूर्णिमादेवी, "देश भर की घर की बहुयें थियेटर करने जा रही हैं। यह सब बातें पागलखाने के पागलों को समझा जाकर अभि, मुझे समझने की कोशिश मत कर।''

"थियेटर नहीं है मां।"

"अच्छा-अच्छा, तेरा सिनेमा ही सही। फर्क क्या है? जिसे भुने चावल कहते हैं वही लाई है। मैं कह रही हूं यह सब नहीं होगा। मैं तेरे किसी बात में बोलती नहीं हूं तो क्या मनमानी करेगा?"

"मनमानी? कहां याद तो नहीं आ रहा है।"

"चुप! चुप रह। बिल्कुल ही नालायक हो गया है। लेकिन मैं कहे दे रही हूं कि यह सब मैं होने नहीं दूंगी। मेरे जीते भी मेरे घर में बैठकर छोटी बहू सिनेमा में काम नहीं करेगी।"

अभिमन्यु दोनों हाथ उलटकर हताश भाव से बोला, "ये लो। क्या सुनना था और क्या सुन बैठी हो। घर में बैठकर कैसे करेगी? स्टूडियो में जाकर करेगी। स्टूडियो जानती हो न किसे कहते हैं? या वह भी नहीं जानती हो? चश्मा नाकपर चढ़ाकर सिर्फ पुराने रामायण महाभारत ही पढ़ती रहीं। ''

खीज उठीं पूर्णिमादेवी, "ओ, ऐसा कह। तो तेरे साथ मिलकर यह सब हो रहा है। समझ गयी, तुझे शायद पैसों की लालच हुई है इसीलिए बीवी को बॉयस्कोप में उतार रहा है। नीच, निकम्मा।"

"आ:! मां! क्या पागलों जैसी बातें कर रही हो।"

बात सच है, पूर्णिमादेवी सहज में विचलित नहीं होती हैं। शायद कभी नहीं हुई थीं। जिस दिन उनके लाडले छोटे बेटे ने सामने खड़े होकर हंसते हुए अपने  'प्रेम' का किस्सा सुनाया था-उस दिन भी नहीं।

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