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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

2

"पागलों जैसी बात" सुनकर गुस्से से तिलमिला उठी पूर्णिमा। बोलीं,  "जिसका तुम जैसा लड़का हो, उसके आगे पागल होने के अलावा रास्ता ही क्या है? जो मर्द अपनी पत्नी पर अंकुश नहीं लगा सकता है, वह चला है दूसरी लड़कियों की मास्टरी करने। कल से घर बैठना, समझे? छि-छि: जितनी बार सोच रही हूं शर्म से सिर कट रहा है मेरा। ''

अवाक् होने की बात देखो। इतने पर भी अभिमन्यु शर्माया नहीं। सीटी वाली धुन को अंगुलियों से ताल देकर बजाता रहा। ऐसा करते हुए बोला, "सिर कटता है? अरे मां, तुम हो कहां? इन सब बातों के लिए सिर कटने का फैशन अब रहा नहीं। बल्कि सिर ऊंचा होता है। इसके बाद देखोगी कि जब तुम गंगा नहाने जाओगी तब लोग ससम्मान रास्ते से हट जाएंगे और अंगुली से इशारा करेंगे 'वह देखो, मंजरीदेवी की सास जा रही हैं। ''

"और यह बात सुनकर मैं नहाकर फिर घर वापस लौट आऊंगी 7 '' पृणा से पूर्णिमादेवी ने मुंह फेर लिया, "क्यों? गंगा में क्या पानी नहीं है?''

बहू की दुःसह स्पर्धा से होकर बेटे के पास आईं थीं कि इसका कोई फैसला करने पर बेटे के व्यवहार से आहत हुईं। समझ गईं कि लड़का बिल्कुल ही जोरू का गुलाम हो चुका है, इस पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता है।

लेकिन अगर अभिमन्यु पर भरोसा नहीं है तो पूर्णिमा के लिए बचा क्या? उनके जिन बेटों ने शादी से पहले 'प्रेम' शब्द की शब्दरचना नहीं जानी, मां का आदेश पाकर सिर झुकाए, सिर पर 'टोपोर' पहन चुपचाप शादी कर आए थे और तब जाना था कि पत्नी किसे कहते हैं, जिनकी बहुओं ने सिनेमा तो दूर, जिंदगी में कभी एक गाने का सुर तक नहीं मुंह से निकाला था, वही लड़के तो पहले ही हाथ के बाहर जा चुके थे।

गुस्सा होकर चली गईं पूर्णिमा।

उधर देखकर अभिमन्यू ने हंसना चाहा लेकिन हंस न सका। सोचना चाहा मां के चाय के प्याले में तूफान उठा है सोच न सका। बल्कि लगा, मां का गुस्सा लाजमी है। हालांकि मंजरी के इस शौक को उसने गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन अभी उसी क्षण उसने आविष्कार किया कि पत्नी के इस शौक का वह मन से जरा भी समर्थन नहीं कर रहा है। जबकि उसे बाधा देने की शक्ति भी शायद अभिमन्यु में नहीं है।

लेकिन है क्यों नहीं?

बाधा देने जाएगा तो अपमानित होगा इसलिए? या कि बाधा देना शर्म की बात है इसलिए?

शायद आखिरी बात ही सही है।

आधुनिक समाज में पत्नी के ऊपर शासन करना या चेष्टा करना, नीचता समझी जाती है। 'पुराने ख्यालात हैं', 'निंदनीय घटना' है-लोग कहते हैं।

फिर भी।

फिर भी एक बार कोशिश करके देखने की इच्छा हुई अभिमन्यु की। इससे पहले नहीं हुई थी, अब हुई। मां को इतना विचलित देखकर मन के किसी कोने में अपराधबोध में झांककर अगाह किया। सच में, क्या मां के प्रति उसका कोई कर्त्तव्य नहीं? उन्हें संतुष्ट रखने की जिम्मेदारी नहीं है? धड़धड़ाता हुआ नीचे उतर आया।

बिना किसी भूमिका के बोला, "मंजू! लगता है तुम्हारा शौक पूरा नहीं हो सकेगा। मां को भंयकर आपत्ति है, बहुत ज्यादा नाराज हो रही हैं।"

मंजरी सुबह से घर के छोटे बड़े सारे कामों से निपटकर अब नहाने जाने की तैयारी कर रही थी। चोटी खोलकर बालों को पीठ पर बिखेरकर, शीशे के सामने खड़ी होकर कंघी करते हुए अपने आपको नए सिरे से देख रही थी।

सिर्फ देख रही थी कहना ठीक न होगा, देख-देखकर मुग्ध हो रही थी। शीशे को रुपहला पर्दा मानकर अपने को दर्शक की दृष्टि से देखने की कोशिश करने में खोई हुई थी।

हां, चेहरा है 'सिनेमा स्टार' बनने योग्य।

हालांकि रंग गोरा नहीं है लेकिन सांवला रंग स्टार बनने में बाधक नहीं। आख नाक मुंह त्रुटिहीन है। और ये बाल? लहरदार इतने सारे बाल?

न जाने किस तरह का मेकअप करना पड़ेगा। मामूली सी भूमिका है उसकी...ग्राम्यवधू नायिका की आधुनिका सहेली। सिर्फ तीन दृश्यों में उसकी जरूरत हे। फिर भी कितना रोमांचक है।

बचपन से इसी बात का शौक था मंजरी को।

कम से कम एक बार, दूर से, दर्शकों के बीच बैठकर वह स्वयं को देखे। देखेगी कैसी लगती है पर्दे पर चलते फिरते हुए, बात करते हुए। बात करते समय चेहरे पर कैसे भाव उभरते हैं? लोग उसके हावभाव देखकर क्या कहते हैं।

छात्रावस्था में स्कूल कॉलेज में कई बार अभिनय कर चुकी लेकिन उसमें कोई मजा नहीं, रोमांच नहीं। उस अभिनय को अपनी आखों से देखकर जांचा परखा कहां जा सकता है? लेकिन स्कूल कॉलेज के उत्सवों में अभिनय करना एक बात है और पर्दे पर उतरना दूसरी बात। गृहस्थ घर की लड़की, गृहस्थघर की बहू शादी से पहले माना कि प्रेम करने का अवसर मिला था पर शौक पूरा करने का अवसर मिलेगा यह तो वह सोच ही नहीं सकती थी। फिर भी मौका जुट ही गया।

भाग्य की उदारता के कारण।

मंजरी के बड़े जीजाजी विजयभूषण मल्लिक पैसे वाले धनी व्यक्ति हैं। अचानक उन्हें धुन सवार हुई है कि तिजोरी में जमाकर रखे धन को हजारों गुणा बढ़ा डालें। अतएव...

सिनेमा के प्रयोजक।

अगर प्रयोजक ठान ले कि एक छोटे से 'रोल' के लिए एक नया चेहरा लिया जाए तो परिचालक उस जिद की उपेक्षा तो कर नहीं सकता है। और छोटी साली अगर जीजाजी के पास एक जिद कर बैठे, जिसे पूरा कर सकना उनके हाथ में है तो जीजाजी की हिम्मत है कि इंकार करें?

यद्यपि वे इसी शर्त पर राजी हुए हैं कि मंजरी ससुराल वालों और ससुर-पुत्र की खुशी से दी गयी अनुमति-पत्र पेश करेगी...तभी जाकर...

मंजरी ने कहा था, वह जिम्मा उसका।

मंजरी की दीदी सुनीति ने कहा था, "वे लोग कभी भी राजी न होंगे, देख लेना।"

विजयभूषण ने कहा, "अरे भाई, वह क्या तुम लोगों की तरह है? 'लव' करके शादी की है...उसकी बात ही अलग है। उनकी हामी होगी इस बात का उसे भरोसा है।"

उम्र में बहुत बड़े हैं जीजाजी, मंजरी को उन्होंने घुटनों चलते देखा था। दीदी के बच्चे ही उसके साथ खेले हैं, इसीलिए साली को उसी नजर से देखते भी हैं। मंजरी भी उनसे बच्चों जैसी जिद कर लेती है।

विजय बाबू ने कहा था, आज शाम को आयेंगे-मंजरी को एक बार स्टूडियो ले जायेंगे, वहां अभिनेता अभिनेत्री के सामने बैठकर निर्वाचित पुस्तक पढ़ी जायेगी।

हंसकर कहा था, "इसके अलावा साढ़ू साहब से हस्ताक्षर ले लूंगा। बाद में वह यह न कहे कि 'बुढ्ढा मेरी बीवी को फुसलाकर घर से निकाल ले गया' मैं इसमें नहीं हूं बाबा। अभिमन्यु खुशी-खुशी साइन कर देगा कि इस मामले का मैं दिल से समर्थन कर रहा हूं" तभी मैं तुम्हें अपनी गाड़ी पर बैठाऊंगा।"

मंजरी ने अभिमन्यु से यह बात बता रखी थी।

अभिमन्यु ने हालांकि कहा था, "तुम खुद बालिग हो।"

फिर भी मंजरी जानती थी कि मजाक-मजाक में कही जीजाजी की यह बात कुछ तो मतलब रखती ही है। इसीलिए मुस्कराकर बोली थी, "लड़कियां कहीं भला बालिग हो पाती हैं? वह तो चिरबालिका रहती है।"

यह सब बातें पिछले रात की है।

सुबह मंजरी अपने आप में मगन थी, अभिमन्यु अपनी धुन में। चाय पीने के बाद से दोनों की भेंट भी नहीं हुई थी। सिर्फ मंजरी ने सोच रखा था कि शाम को जीजाजी के आने की बात फिर एक बार याद दिला देगी जीजाज्ञी को। मन तितली की तरह पंख फैलाये उड़ रहा था।

वैसा ही हल्का, वैसा ही थर-थर कंपन।

ठीक ऐसे ही वक्त पर अभिमन्यु की प्रतिवादपूर्ण हथौड़े की चोट।

अगर अभिमन्यु कहता, "मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है" तो मंजरी पिघलकर द्रव बन जाती, उसके इस अच्छे न लगने को अच्छा लगाकर ही छोड़ती। लेकिन यह तो असत्य है।

इतना आगे बढ़कर, इतनी आशाएं लिए फिर रही है जब, तब ऐसी एक खीज भरी बात सुनकर मंजरी के सिर से पांव तक आग लग गयी।

बालों में कंघी फंसाकर, भौंहें सिकोड़कर बोली, "तुम्हारी मां ने क्या पहली बार यह बात सुनी है?''

अभिमन्यु के लिए यह भावभंगिमायें नई नहीं थीं। इसके लिए वह तैयार होकर ही आया है। मुस्कराकर बोला, "बात ऐसी नहीं है। पर सुनकर पहले उन्हें विश्वास नहीं हुआ था।"

"क्यों? ऐसी कौन सी अविश्वसनीय बात है?''

"ये बात भी है।"

"तुमने जब उन्हें सूचना दी थी तभी क्यों नहीं बता दिया था?''

"उस वक्त सोचा नहीं था कि मां इतना ज्यादा अपसेट हो जाएंगी।"

"सोचा क्यों नहीं था? सोचना चाहिए था। अपनी मां का पहचानते नहीं हो ऐसी बात तो है नहीं।"

अभिमन्यु का चेहरा थोड़ा लाल दिखाई दिया पर कंठस्वर सहज ही था, "खुद को ही नही पहचान सका तो माता, भगिनी, जाया।"

"समझी! अपने को ही 'ऐसा लग रहा है' इसलिए उसी अनिच्छा को मां के एतराज का छद्यवेश पहनाकर...''

सहसा अभिमन्यु हंसने लगा।

काफी जोर-जोर से, आवाज के साथ।

"अचानक इतनी बड़ी-बड़ी बातें क्यों कह रही हो? स्ट्रड़ियो जाने के नाम भर से स्टेज की हवा लग गई क्या? मां पुराने जमाने की हैं, घर की बहू बेटियां सिनेमा देखने जा रही हैं सुनकर ही अप्रसन्न हो जाती हैं, वही काम कोई करने जा रहा है सुनकर गुस्सा होना तो स्वाभाविक ही है न?"

'ठीक है मान लेती हूं कि वह बड़ी स्वाभाविक हैं। हमेशा ही स्वाभाविक काम किया करती हैं। लेकिन अब क्या किया जा सकता है?"

अपमान से आहत अभिमन्यु फिर भी कोशिश करता है। यह प्रकट नहीं होने देता है कि आहत हुआ है, अवेहलना दिखाते हुए कहता है, "करने को सभी कुछ हाथ ही में है। विजय बाबू के आने पर कह दिया जाएगा मां को भीषण आपत्ति है।"

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