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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

3

दोबारा शरीर की रगों में खौलता खून दौड़ गया। आग लग गयी तनबदन में।

अभिमन्यु अगर बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं कहकर सलाह मांगता, "जरा बताओ तो, विजय बाबू को क्या कहा जाए?" तब शायद धक् से ऐसे आग नहीं लग जाती। पर उसकी यह अवेहलना वाली भंगिमा असहनीय लगती है। जैसे मंजरी इंसान नहीं? उसकी 'जुवान' की कोई मर्यादा नहीं?

बचपन का शौक जाए जहत्रुम में। अब तो मान मर्यादा का प्रश्न ही मुख्य है।

इसीलिए फिर से शीशे की तरफ पलटकर कंघी हाथ में लेते हुए मंजरी ने स्थिर स्वरों में कहा, "नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। मैंने वचन दिया है।"

"आश्चर्य है! अरे इसमें वचन देने दिलाने वाली क्या बात है?"

"बात है!"

"होगी, हालत क्या है वह समझ जाएंगे। बंगाली घर के लड़के हैं न हो, मैं ही कह दूंगा।"

"नहीं।"

इस एकाक्षरी संक्षिप्त प्रतिवाद के बाद बात आगे बढ़ नहीं सकती थी कम से कम अभिमन्यु जैसे अभिमानी पति की तरफ से।

पलटकर तौलिया लेकर वह भी नहाने चल दिया। थोड़ी देर पहले सोचा था आज कॉलेज नहीं जाएगा, प्रस्तुत होकर घर से निकलने का मन नहीं था। अब झट से मन बदल लिया उसने।

सुडौल सुंदर स्वच्छ कांच का बर्तन भीतर ही भीतर चटख गया।

विजय बाबू खुली आवाज में बोला, "कहां, जो साला अनुमति-पत्र पर साइन करेगा वह कहां है?''

"ओहो! आप अब तंग मत कीजिए। जैसे मैं नाबालिग हूं।"

साथ में सुनीति आई थी।

उसने कहा, "मान लिया कि तू बड़ी बालिग है। लेकिन गया कहां वह? हमारे आने की बात उसे मालूम नहीं थी?''

"मालूम क्यों नहीं होगा! असल में आज ही के दिन कॉलेज लाइब्रेरी की मीटिंग है।"

"पूछता हूं उसे एतराज तो नहीं है?"

"रहे भी तो सुनता कौन है?''

सुनीति का मन इस बात का समर्थन न कर सका। सारे रास्ते वह अपने पति को डांटती रही थी, बहन के पति को भला बुरा कहती रही थी। उसका कहना था, इतना शौक पालना अच्छा नहीं है। उम्मीद थी कि यहां आकर सुनेगी कि अभिमन्यु ने मना कर दिया है। लेकिन वह आशा भंग हो गयी। न जाने इस शौक का नतीजा क्या होगा? अंतिम परिणाम क्या होगा? रिश्तेदार परिवार वाले निंदा करेंगे और सभी इसके लिए उसी के पति को जिम्मेदार ठहरायेंगे। ये कैसा झंझट जान-बूझकर मत्थे लद गया?

अभिमन्यु भी अजीब है।

इस युग की बात ही अलग है।

आधुनिक बनने की होड़ में लोग अपना भला बुरा भुला बैठे हैं।

सुनीति लोगों का बचपन कितनी सख्ती में बीता था जबकि कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं। बेचारी सुनीति, पढ़ने लिखने की कितनी इच्छा थी लेकिन क्लास नाइन में पहुंचते ही उसे स्कूल छोड़ना पड़ा-अपराध था बड़ा हो जाना। जिस वक्त स्कूल से निकाला गया, एक बार प्रस्ताव रखा गया कि किसी बूढ़े से मास्टर को रखकर आगे की पढ़ाई जारी रखा जाए लेकिन अन्य सभी प्रस्तावों की तरह ये प्रस्ताव भी लोगों ने भुला दिया।

इसके बाद दो एक साल जाने कैसे बीत गये मां की तबीयत खराब होने के नाम पर घर का सारा काम कंधे पर आ टिका। इसके बाद पैदा हुई मंजरी।

किशोरी सुनीति ने ही मां का जच्चा बच्चा संभाला। तब तो अस्पताल जाने का रिवाज था नहीं। पर्दा वाले घरों की बहू बेटियां यह बात सोच ही नहीं सकती थीं।

मंजरी ने घुटनों के बल चलना सीखा ही था कि सुनीति की शादी हो गयी। याद है, विदाई के वक्त बहन को गोद में लेकर फूट-फूटकर रोई थी। सच तो ये है कि दीदी और जीजाजी के लाड़ प्यार के कारण ही मंजरी इतनी दुःसाहसी हो रही थी।

सुनीति ने ही मां-बाप से कह सुनकर उसे कॉलेज में भर्ती करवा दिया था। कहा था, हम तो न पढ़ सके, ये तो पढ़ ले।" हां इसी तरह की अनेकों छूटें मिलीं हुई हैं मंजरी को।

लेकिन यह तो अति है। बहन का फिल्मों में काम करने वाली बात सुनीति से बर्दाश्त नहीं हो रही है। और इसीलिए अभिमन्यु पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था।

मंजरी ने साज-श्रृंगार करना शुरू कर दिया। सुनीति ने इधर-उधर देखकर दबी जुवान में पूछा, "तेरी बुढ़िया सास नजर नहीं आई? कहां हैं?"

मंजरी गंभीर भाव से बोली, "मेरे ऊपर नाराज होकर लड़की के यहां चली गयी हैं।"

"सर्वनाश! जो सोचा था वही। मैं तो सोच ही रही थी बुढ़िया यह सब होने कैसे दे रही है। अब उपाय?

मंजरी ने गले का हार उतारकर दूसरा पहनते हुए कहा, "बुढ्डे बुढ़िया तो हमेशा ही रहेंगे बड़ी दीदी। उनके मरने के बाद अगला जेनेरेशन बूढ़ा होगा। लेकिन इसके ये मतलब तो नहीं कि समाज में नया कुछ नहीं होगा।"

"तुझसे तर्क कर सकूं इतनी विद्या मुझमें नहीं है।" विजय बाबू बोले, "ये लो! लड़की एक शुभ काम के लिए जा रही है और तुमने घिनघिनाना शुरू कर दिया? ऐसा भी क्या पाप कार्य करने जा रही है? इसमें दोष क्या है?"

"नहीं दोष कहां है-खूब सारे गुण हैं।" कहकर सुनीति मुंह फुलाकर बैठ गयी।

विजयभूषण से तर्क में जीतने का सामर्थ्य उसमें नहीं है। उनसे तर्क ही नहीं कर पाती है। जिंदगी भर कोशिश करती आई सुनीति लेकिन पति को 'सीरियस' न बना सकी। दुनिया का वह हिस्सा उन्हें दिखाई ही नहीं देता है जो अंधेरा है। जोर जबर्दस्ती आंखों में अंगुली डालकर दिखाने से हंसकर टाल देते।

अभिमन्यु फुर्तीबाज तो ये भोलेनाथ।

लेकिन फुर्तीबाज अभिमन्यु के भीतर आज एक कठोर मूर्ति दिखाई दी है और इसीलिए मंजरी को इतना गुस्सा है, इतना अभिमान। वह तो जिंदगी भर देखती आ रही है दीदी जो जी में आ रहा है कर रही है, लेकिन जीजाजी तो कठोर नहीं होते हैं।

उस दफा तो दो साल के छोटे से बेटे को छोड़कर सुनीति जब पड़ोसियों के साथ केदार बदरीनाथ चली गईं, घर-बाहर सभी ने खूब निंदा की थी। लेकिन विजयभूषण जरा भी गर्म नहीं हुए।

मंजरी ही जब दीदी की गलती की बात लेकर जीजाजी से कहने गयी तो विजयभूषण हंसकर बोले थे, "जाने दे भाई, जाने दे। तेरी दीदी की स्वर्ग की सीढ़ी बनेगी तो मुझे भी फायदा होगा। आचल में बांधकर घसीटती हुई नहीं ले जाएगी क्या? ट्वेंटी फोर आवर्स का सर्वेंट एक नहीं रहेगा तो स्वर्गसुख आधा नहीं हो जाएगा क्या?"

"चुप रहिए आप।" मंजरी ने डांट लगाई, "और इस खोका का हाल? नौकर-चाकर हैं तो क्या कोई बच्चा छोड़कर चला जाएगा? इसकी दुर्दशा नहीं हो रही है?''

"हाय-हाय, मुझ पर इतना अन्याय न कर भाई।" कहा था विजयभूषण ने, "मैं बाप होकर उसकी दुर्दशा कर रहा हूं यह मुंह पर कहना क्या ठीक है? कहना ही है तो चोरी छिपे पीठ पीछे कह।"

"पीठ पीछे क्यों कहूं? जो कुछ कहूंगी मुंह पर ही कहूंगी।"

"सो तो ठीक है। तुम लोग हो आधुनिका-कोई बात ढाक तोपकर, मिठास भरकर करना तुम्हारा कानून नहीं है खैर एक बात अच्छी हुई कि इन दो महीनों में शिशुपालन पद्धति सीख लूंगा।"

यह हैं विजयभूषण।

इसी को कहते है पति हो तो ऐसा। वरना जब तक पत्नी पति और उसके पति और उसके परिवार वालों के मतानुसार चल सकी तभी तक प्यार मोहब्बत की दरिया बहती रही, अन्यथा दरिया सूख गयी। इसे क्या प्रेम कहते हैं?

उपरोक्त बातें सोचते हुए मंजरी जोर-जोर से मुंह पर स्नो घिसने लगी। इसके बाद नौकर को यथाकर्त्तव्य निर्देश देकर दीदी जीजाजी से पहले जाकर कार पर बैठ गयी।

प्रयोजक नए थे लेकिन परिचालन अभिज्ञ।

किताब पढ़कर वे अभिनेता अभिनेत्री को विस्तार से, स्पष्ट रूप से उन्हें उनकी भूमिका समझा दे रहे थे। लेकिन मंजरी का ध्यान बार-बार हट रहा था। जिन अभिनेता अभिनेत्रियों को पर्दे पर देखकर पागल हो उठती थी, मंत्रमुग्ध हो जाती थी आज उन्हीं में से कुछ को बिल्कुल पास देखकर उत्साह ठंडा पड़ गया था।

ये ही मनीष चौधरी, कुछ दिन पहले एक फिल्म में भावपूर्ण अभिनय करने के कारण रातों रात प्रसिद्ध हो गये थे। तीन-तीन बार मंजरी ने उस फिल्म को मनीष चौधरी के लिए ही देखी थी। देखती और सोचती, ये कोई साधारण जगत का आदमी नहीं, किसी दूसरी दुनिया से आया है। और ये मनीष चौधरी लगातार सिगरेट पीए जा रहा है और बीच-बीच में डिब्बा खोलकर पान खा रहा है, मुठ्ठी भर-भरकर तंबाकू फांक रहा है।

छि:।

और ये काकोली देवी?

आंखों को ढेर सारा काजल, गालों में बड़े-बड़े मुंहासे, अजीब तरह की रंग बिरंगी साड़ी ब्लाउज-देखकर विश्वास नहीं हो रहा था कि यह बनेगी पतिपरायणा, विलासवर्जिता एक सरल ग्राम्यवधू?

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