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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

15

कन्या विदाई के समय उन्होंने सोने का मुकुट और अलंकार से सजाया तभी वधु को विदा करवा कर ले गये। मेरी दुर्मुख पोती हँसकर बोली-फिर क्या तब तो दुखों का अन्त ही हो गया।

क्यों री ऐसा क्यों? सोचती हैं तेरे जमाने की तरह प्रेम ना था जो प्यार को अवज्ञा की दृष्टि से देखते। तुम्हारा प्रेम तो शीशे के गिलास की तरह क्षणभंगुर होता है।

वह हँस कर पूछने लगी-तुम्हारी पत्थर की तरह मजबूत प्रेम कथा क्या परिर्वात थी? वह हतभागी प्रेमी-उन्होंने उस उत्सव में क्या किया?

करता क्या ! लोगों के सामने तो वह अपना हृदय चीर कर नहीं दिखा सकता था। मोहल्ले के दूसरे लड़कों की तरह शादी में काम किया।

खाना, परोसा शायद खाया भी था। कई सारी किताबों में शतदलवासिनी देवी के शुभ विवाह के अवसर पर स्नेह अशीर्वाद लिख अपना नाम नीचे लिखकर चला गया।

स्नेह-आशीर्वाद और क्या लिखता?

प्रेम उपहार। उस काल की यही प्रथा थी, रीत थी।

ओह दादी गुस्सा क्यों करती हो? फिर उस ज्योतिषी की गणणा फली।

रुक तो शैतान लड़की-सारी बातें क्या अक्षराक्षर फल सकती है। शादी के वक्त यह बात छिपाई गई थी कि वर पागल था। सुहागरात को ही यह बात पता चली। हाय-हाय मर जाऊँ। पन्द्रह बरस की वधु के साथ ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।

उसकी सहानुभूति प्रकाश करने की अदा पर मुझे भी हँसी आ गई। तू तो आहा कर रही है पर वधु ने क्या कहा- ईश्वर का आशीर्वाद है जो वर पागल ना होता अच्छा होता और प्यार करता तो तेरी दलूमौसी का क्या होता। किसे पता है मन ही बदल जाता। शायद मैं भी उससे प्यार करने लगती। ज्योतिषी की गणना कुछ अंशों तक तो सही निकली। यह भी हर प्रकार का वैधव्य ही था। क्या पता पूँटी के देवर से ब्याह होता तो मेरे कोष्ठी के कारण वह भी पागल बन जाता?

अच्छा श्रीमती शतदलवासिनी की काव्यमलिका कब प्रकाशित हुई?

कुछ समय बाद।

दलूमौसी गे डर कर भाग आई थी। दादा लोग गुस्से से पागल हुए जा रहे थें-पागल को छिपा कर शादी की, पुलिस मे मामला चला कर

सबको जेल भेजेंगे।

दसूमौसी ने रोका। कहा-जंगहसाई की आवश्यकता नहीं। पागल की मार से मरना तुम्हारे दलू के भाग में है तो क्या तुम लोग बचा पाओगे?

अगर वही वाली बात फली तो अक्कि समय तक भुगतना भी नही पड़ेगा।

यही तो। फला नहीं। पागल महाशय ने काफी समय परेशान किया। आखिरकार राची के पागलखाने मे भेजा गया।

ओ माँ यह।

हाँ यही।

किताबें क्या नये चाचा ने अनुताप से छपवाई? वह तो अनुताप का अर्थ तक ना जानते थे। अनुताप से तो बड़े दादा दग्ध हुए थे। वही ज्योतिषी उनके शतरज का भी साथी था।

किताब भी एक इतिहास वहन करती हैं तब दलूमौसी ससुराल में थी। वह रांची में नहीं भेजा गया था। अचानक एक दिन छोटे देवर एक किताब लाकर हँसते-हँसते बोले-देखो भाभी अगर तुम चाहो तो इसे अपनी लिखाई बताकर दावा कर सकती हो। तुम्हारा ही नाम साफ-साफ लिखा है।

दलूमौसी तो देखते ही उन्मादिनी-सी हो गई। समझ गई किसका काम था। मुँह से क्या कहतीं। बोली सच भाई-अपना नाम देखकर मजा आ रहा है, इच्छा होती है सबको दिखाकर चमत्कृत कर डालूँ।

ननद बोली-रक्षा करो भाभी दादा अगर विश्वास कर ले तो भाग मे ' जूते से पिटना पड़ेगा।

यह तो खाना ही था।

पर दलूमौसी अविचलित थी। बोली कौआ कान ले गया-सुन के कौए के पीछे भाग कर महापाप किया इसकी सजा भुगत रही हूँ। उसका जीवन र्बबाद कर दिया, उसे कम सताया।

शेष विदाई की बेला मे दलूमौसी ने वह काव्यमलिका उन्हीं को सौपी थी कौन जानता था। ऐसा शान्त-सा लडुक ऐसी हिम्मत भी दिखा सकता है?

असल में दलूमौसी ने मिजाज दिखा कर कहा था यह कविता में छपवा कर ही छोडूँगी। अपनी प्रतिज्ञा उसे भी बताई थी। हताश प्रेमिक ने प्रेम की चरम परिवतिस्वरूप यह कर दिखाया।

उसने तो किया पर दादाओ की मण्डली मे तूफान खडा हो गया। दलू के ससुराल से तो नही। किसने लेखनी-ये पैसा किसने दिया।

कृष्णभामिनी के लड्‌डूगोपाल का कहना था डर की आवश्यकता नहीं किसी अपने के ही काम है। जगाई को पालतू भूत पेन्सिल से लिख कर रख गया-उस बदमाश का काम है जिसका नाम 'अ' से शुरू होता है।

इसके बाद सन्देह का अवकाश कहाँ था?

धोंता की उस 'अ' अक्षर वाली आसामी पर टूट पडे। सोचा मा घबडा कर वह माफी मागेगा पर उसको क्या पढी थी। गर्दन अकड़ा कर बोता-छपी तो है गुरुदास लाईब्रेरी में, मुझे क्यों पकडने आये?

धोता बोले-वह क्या अपने पैसे से छापेंगे? या खुद के गरज से छापेगे? तुम्हे छोड के और कौन ऐसा काम कर सकता है? तुम्हारे साथ ही तो दलू-

वह गम्भीरता से बोला-इसे माने-क्या?

धोता की भी छुरी में धार खत्म। वह क्या जबाव देते?

बात को बदलकर बोले-माने वह यहाँ रोज आती थी तुम्हीं जानते थे वह पद्य लिखा करती थी।

सिर्फ मैं ही जानता था? आप लोग भी तो जानते थे।

अरे बाबा वकील का भाई वकील से एक सीढी ऊपर चढ कर जिरह करता है। पर लडने के लिए आगे बढ्‌कर तो पीछे जाया नहीं जा सकता।

कहना पड़ा-पता तो था पर हम उसका पद्य छपवायेगे? अपने मुँह पर काली पोतेगे? हमारा तो और कुछ काम नहीं है? हमारा पैसा भी

इतना सस्ता नहीं।

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