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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

16

अचानक यह ख्याल, क्यों कि मेरा ही पैसा फालतू है। तभी पैसा खर्च करके आपके घर की बेटी की किताब छपवा डाली।

तभी तो। फिर तो प्यार की बात नहीं छेड़ सकते। धोंता गुस्से से बोला-पड़ौसी से दुश्मनी करने-जिससे मेरी लड़की की बदनामी हो और ससुराल वाले उसे तंग करें इसलिए।

अचित्य को भी गुस्सा आ गया-फालतू बात छोड़िये तो, ऐसी लड़की को जानबूझ कर हाथ-पैर बाँध कर पानी में डाल कर भी आपको शान्ति नहीं मिली। यह किताब दलू की है इसका क्या प्रमाण है? इस नाम की इस दुनिया में और कितनी लड़कियां हैं? और कोई अपनी लड़की का ऐसा शौकीन नाम नहीं रख सकती?

चमत्कार। बड़ी जुबान चलाते हो? ठीक करना भी खूब आता है। किताब हमारे घर में किस हिसाब से आई?

किस हिसाब से—यह जानने के लिए जासूस नियुक्त करिये।

क्या कहती हो दादी? आँ। ऐसा अपमान कर डाला था तुम्हारे सम्मानित नये दादा का।

किया था पर यह काम ठीक नहीं किया। शायद मन के दुख से जल कर ही ऐसा किया। नये दादा तो घर लौट कर पानी में गिरे या आग में। मेरा प्रधान लक्ष्य थी कृष्णभामिनी। उनकी पैंटी का सम्बन्धी था। वे भी ऐसी वैसी नहीं थीं। वह तो अपने लड्डूगोपाल की चरणों की दासी थीं।

वह बोलीं-तुम्हारे भूत की पेन्सिल से आधा अक्षर ‘अ’ निकला है। यही देख भले आदमी के घर में उससे लड़ने चले गये। तुम लोगों को कब अक्ल आयेगी? तेरा नाम भी तो अ से ही शुरू होता हैं।

हमारे युग में ऐसा होता था—बुआ उसके नाकों चने-चबा देतीं।

माने?

माने क्या तेरा अच्छा नाम अनादि नहीं है? मैं क्या बदमाश हूँ?

कैसा है यह तो मुझे ही पता है। जैसा तू वैसा ही तेरा भाई जगाई है जो रात-दिन भूत लेकर पड़ा है। भूत को त्याग कर ईश्वर की शरण ले। सारे दुःख दूर हो जायेंगे।

किसने किसकी शरण ली कौन जाने? तब भी यही देखा गया ‘शतदलवासिनी देवी की काव्यमलिका का जय जयकार होने लगा। भारतवर्ष, प्रवासी सभी में समालोचना, प्रशंसा निकलने लगीं। नाम छा गया।। कोई यह भी कहता महिला कवि द्वारा पहले ऐसी स्पष्ट स्वच्छ प्रेम की कविता नहीं रची गई। इस नवीना कवि की हिम्मत है?

किसी का यह भी वक्तव्य था-सन्देह हो रहा था नाम बदल कर लिखा गया है। क्योंकि रमणी की कलम से ऐसी शक्तिपूर्व प्रेम की कविता विस्मयबोधक है।

अविश्वास्य कुछ भी नहीं। युग के बारे में सोचो। तब क्या साहित्य का बाजार इतना गरमागरम था, इतनी रेशारेशी, इतनी प्रतिद्वन्दिता थी? किसी-किसी (जगह) महल में यह महिला कवियित्री निन्दा की पात्री भी बनी-निर्ल्लजता के लिए।

स्त्री के कलम से हृदय उद्धारन, प्रेम का अक्षर कैसे सम्भव? लड़कियाँ यदि ऐसी लज्जाहीना हों तो देश का क्या होगा?

पर वह अदृश्य कवियत्री तो नि:शब्द-इस घर में कभी आती थी।

एक दिन उदासी में भी मुस्कान भर कर बोलीं-निन्दा, प्रशंसा सब मुफ्त में जा रहा है। शतदलवासिनी मैं हूँ या और कोई है?

उसके बाद वह घटना-

मैं तब संसार चक्र के पहिये में घूमते-घूमते कहाँ से कहाँ पहुँच गई। लोगों से सुना–दलूमौसी के पति को उसके भाई और चाचा ने रांची भेज दिया। और दलूमौसी की सास बहू को अपशकुनी, कुलच्छनी और ना जाने किन-किन गालियों से शोभा बढ़ा कर इस बात का ताना भी दे रही थीं कि उसी ने उनके अच्छे भले बेटे को पागल बना दिया। फिर गहने, कपड़े छीन कर उसे मैके भेज दिया-ठीक उसी समय अचित्तय की माँ भी अपने बेटे के लिए वधु की तलाश में थीं-उनका प्रण था कि बेटा अगर ब्याह ना करेगा तो वह काशीवासी बन जावेंगी।

इसी पृष्ठभूमि में दलमौसी का भी इसी प्रण के साथ कलकत्ता वास उठा-इस कलकत्ते में अब नहीं रहूँगी। कहकर उन्होंने कलकत्ता त्यागा।

वह वृन्दावन में एक वाल्यविधवा ददिया सास के पास गईं थीं—वह भी

कभी-इस संसार में नहीं रहना-कहके देश त्याग करके चली गई थी एकदा। यह तो मनि-कांचन का योग हो गया।

जाते समय दलूमौसी मुझे एक पत्र देकर गईं थीं।

सोने जैसा कलकत्ता छोड़कर जा रही हूँ पर मेरे प्राण यही बसते हैं। तूने भी तो अपने आप को काफी प्रतिष्ठित कर लिया है-ऐसा ही मुझे लगता है। हमारी कहानी को आधार मान एक कहानी सुन्दर ढंग से लिखे डाल। जहाँ भी रहुँ पढ़ लँगी। उस दुश्मन ने मुझसे जबान ले ली है कि मरने का ख्याल भी नहीं कर सकती। गले में फांस डाल कर मरने का रास्ता भी बन्द कर मुझे मरण-सुख से वंचित कर दिया। नहीं तो क्या कलकत्ता छोड़ वृन्दावन भागती?

इस घटना के अर्थ शताब्दि हो चुके थे। इसी बीच गंगा में कितना पानी इधर से उधर-यमुना का जल सूख चुका था। कब रांची से एक पत्र पाकर दलूमौसी उस यमुना के चौड़े तीर पर जाकर हाथ-माथा दोनों नंगे कर कैसे घूमती है यह भी कभी-कभी कर्णगोचर होता रहता।

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