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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

21

अगले दिन अचानक बोलीं, इसे मोहल्ले में छतों से आना-जाना . चलता था, उसे प्राचीर खड़ा कर किसने बन्द किया?

बन्द कर दिया? मुझे तो पता नहीं।

तुझे जानने की जरूरत ही. क्या? कहकर दलूमौसी ने क्रोधित मुँह

दलूमौसी बोलीं-बहू बूढ़ा कौन है? नाम क्या है? इतनी जब उम्र को दीवार की ओर कर लिया और हरिनाम वाली माला जपने लगीं।

पर माला क्या जयादा दूर तक बढ़ पाया? इनके घर की एक झौक पहनी काम वाली लड़की आकर बोली, मौसीजी, वह खेल देखने जो आता है वह बूढ़ा पूछ रहा है-आज कब खेल शुरू होने वाला है?

प्रबुद्ध पत्नी बड़े नीरस स्वर से बोली, अरे बाबा यह एक बड़ी मुश्किल हो गई हैं अस्सी साल की उम्र हो गई या अस्सी पार कर लिया है, पर बूढ़े को अभी भी खेल देखने का शौक है। अपने घर में तो टीवी, है, पर दूसरे के घर में आकर...। अनोखी बात लगती है। वहाँ पर भतीजों-उनके बच्चों, बहुओं का मेला रहता है, बैठने की जगह नहीं मिलती। जितनी जगह मेरे घर में ही बची है।

पैन्ट और कसी गंजी वाली लड़की आ गई। अपने कसे गले से बोली, ड्राईगरूम की शोभा बढ़ाने के लिए टीवी को नीचे तले में रखो। घर में बाकी लोगों ने तो अपने-अपने टीवी, शयनकक्ष में रख लिये हैं। प्रबुद्ध की बीवी ने तब कहा था नीचे वाले कमरे में रखने से बाहरी लोगों का उपद्रव शुरू हो जायेगा।

आश्चर्य। अपना घर अपनी इच्छा से सजा भी नहीं सकती? उसी कमरे में हमारी समिति का अधिवेशन, सभा होती है, वहाँ टी०वी० नहीं..?

फिर और क्या? उस सूखे बूढ़े को बुलाकर तुम्हारे डनलप-पिलो वाले सोफे पर बिठाकर टीवी का प्रोग्राम दिखाओ। खेल के बहाने से रोज ही तो आता है। वह लट्टू की तरह घूमती हुई चली गई।

प्रबुद्ध की बीवी-आपके भतीजे भी तो भद्रता के अवतार हैं।

आहा। बूढ़े आदमी खेल पसन्द करते हैं, घर के सदस्य शायद मानते नहीं होंगे मुझे ही देखना पड़ेगा। आज सारी भद्रता खत्म कर दूँगी।

उसका गुस्सा देख मुझे हँसी आ रही थी पर उसे दोष भी तो नहीं दिया जा सकता। सच वहाँ का एक दुबला सूखा-सा बूढ़ी रोज जाकर उसके शौकीन टीवी के सामने बैठा रहती है, यह किसे अच्छा लगता है?

दलूमौसी बोलीं-बहू बूढ़ा कौन है? नाम क्या है? इतनी जब उम्र है तो शायद नाम बताने से मैं उसे पहचान भी लूँ।

बहू अत्याधिक विरक्ति प्रदर्शन कर बोली, वही तो उधर वाला हड्डियों का ढाँचा वाला घर नाम तो पता नहीं पर चिनि बुआ, कचिबुआ उसे पूँटी का देवर बताती थीं। ओह वह पैंटी भी एक खतरनाक महिला है। मोहल्ले में-वह भी यह कहकर चमक कर चली बनी।

दलूमौसी भी गुस्से के मारे खड़ी हो गई। देखा तूने कितनी अवमानना एक भद्र घर के लड़के को।

दलूमौसी लड़का कहाँ से बूढ़े को बोलो। तू चुप कर तो। मैं क्या ऐसे ही कलकत्ते को इंसानों का बसने लायक नहीं मानती। आँ पहिया उल्टा कैसे घूम गया।

आजकल तो पुरुष ही चोर बने रहते है। औरतों का ही राज है। चल तो जाकर देखें, उनके किस कमरे में वह टी.वी. है। लालची, हतभागा, वह बुद्धि, भूर्ख उनके लालची पने को दूर कर आऊँ। अपना मान-सम्मान ही रखना नहीं जानता इतना नीचे गिर गया है। किस कमरे में?

हँस कर सिल्क की चादर ढक कर दलूमौसी बोली, मैं हँसी मैं क्या करने जाऊँ तू ही उसे उचित सजा दे दे। लग तो रही है रानी रासमनी जैसी।

पता नहीं दलूमौसी ने काहे को चादर ओढ़ा पता नहीं पर चादर के ओढ़ते ही वह बिल्कुल राजेन्द्राणी लगने लगीं-उसमें जरा भी संशय ना था।

ना। तू भी चल।

हँसी-अभी भी हृदय हिमालय बन गया है?

हाँ हिम प्रपात। पर आग जल रही है। माथा गुस्से से अंग जली जा रहा है।

पर अभी तो बहुत कुछ बाकी है।

कमरे में घुसने से पहले ही कान में आया-वहीं फ्रॉक परिहित लड़की कर्कश स्वर में कह रही-टीवी खराब हो गया हैं आज नहीं चलेगा।

आप घर जाइये।

दलूमौसी कमरे में आकर ही छिः ! छिः ! करके बोलीं, तुम इतने लोभी कब से हो गये? इतना नीचे गिर गये हो?

कौन? कौन?

भूत देखा लग रहा है ना। ऐसा ही कुछ है। भूत तो नहीं, चुडैल। दलू सच में तुम कब आई?

तीन दिन हो गये हैं।

तुम कलकत्ता तीन दिन पहले आई। कहाँ रह रही हो?

कहाँ रहती इस घर को छोड़?

तुम इसी घर में तीन दिनों से हो?

बेचारा नारियल के छिलके जैसा दुबला बूढा सामने वाले सोफे से उठ कर फिर से बैठ गया। पर इतना हल्का था कि दलूमौसी की बहू का डनलप पिलो जरा हिला तक नहीं।

कहा, दलूमौसी मैं थोड़ा जा रही हूँ। तुम्हारी बहू को एक बात कह आऊँ।

कहने को कुछ भी ना था और कहने जा भी नहीं रही-मन ही मन हँस कर उस स्थान से चली आई। आगामी संवाद तो बिना सुने अनुमान कर सकती थी क्योंकि मैं भी तो संलाप बनाती थी।

तीन दिन से हो और मुझे पता नहीं चला। जानते कैसे? छत का रास्ता तो दीवार से बन्द कर दिया गया हैं।

दलू अब सब ऐसा ही है। सभी आपस में प्राचीर गाढ़ कर रहते हैं।

सिर्फ अभी? तब नहीं था? शासन की दीवार? आँखें तरेरने की दीवार ! मरने दो। मैं कहती हूँ मैं तो सुन कर गई थी कि ताई जी वधु की तलाश में थीं, उसका क्या हुआ?

होता क्या? कन्या देखने से ही क्या शादी हो जाती है? नहीं करके तो ऐसी बुरी हालत है। लालची निर्लज्ज की तरह पराये घर में फालतू टीवी देखने आना इसका क्या अर्थ है?

मायने कुछ भी नहीं है। असल में दलू बहुऐं खेल के समय टीवी खोलती नहीं। उनका कहना है यह सब फालतू कार्यक्रम हैं और मझली भाभी तो मझली भाभी यानि पूँटी?

सुना है कि पूँटी अब मोहल्ले में बड़ी कलहप्रिया, कर्कशा के नाम से मशहूर है।

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