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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

22

किसने यह समाचार सुनाया?

जो भी सुनाये झूठ तो नहीं हैं मझले दादा यानि अनन्त बाबू है?

ना रहने के जैसे है। उच्चरक्त चाप की वजह से हमेशा निर्बोध पड़े रहते हैं। हो भी तो गई बयासी-तिरासी की उम्र।

हाँ वह तो है। तुम्हारी भी तो कुछ उम्र नहीं है। इतना शौक किसलिए?

शौक। समय बिताने के लिए। संध्या के समय क्या करूं। अधिक किताबें पढ़ने का भी उपाय नहीं है, आँखें साथ नहीं देतीं।

क्यों, किसी पार्क में जाकर बूढ़ों संग नहीं बैठ सकते?

ऐसे बूढ़े भी दुर्लभ हैं दलू। मेरी उम्र के काफी तो मरे खप गये हैं। इसके अलावा अब तो. घर-घर में टेलीविजन है। बुड्ढे आजकल शाम को घर से निकलना ही नहीं चाहते।

बड़ी ही गम्भीर समस्या है? दलू ने चिन्तित चेहरे से देखकर उस व्यक्ति को बिल्कुल चौंका दिया, वह हँस कर बोलीं।

कौन-सा काम?

मैं कह रही थी नये सिर से अपने प्यार को-अब जिसे प्रेम कहती हैं, उसे दोहरा लें अगर? मोहल्ले के लड़के के संग लड़की का प्रेम।

ना। तुम्हारी जबान पर लगाम नहीं है।

आहा। इसमें बुरा क्या है? आजकल की लड़कियों को देखकर जलन हो रही है और मन में एक इच्छा जगी है। सोचो डर की भी बात नहीं । कौन क्या कहेगा इसकी भी चिन्ता नहीं-दोनों आज बेलूड़े जा रहे है, कल दक्षिणेश्वर, परसों पाठ कीर्तन सुनने साथ-साथ जा रहे हैं। दो बूड़े-बूडी को कौन क्या कह सकता है? कौन उंगली उठा सकता है? और हम लोग मन ही मन उन्हीं दिनों में पहुँच जाते है। कोशिश करके देखो तो!

दलू तुम्हारी बातें सुनकर मेरे हाथ पैर काँप रहे हैं?

अभी भी काँपते हैं? हाय हाय ! सुना था बुद्ध से बुडू भी अस्सी साल में बड़े हो जाते हैं। तुम अभी तक नाबालिक ही बने रहे।

जाने दो-असले काम के मुद्दे पर आते हैं-कहती हूँ काफी तो रोजगार किया है-कुछ जमाया है? गृहस्थी तो की नहीं? हाथ में नगद पैसा है? आँ-क्या कह रही हो?

आजकल क्या ऊँचा भी सुनने लगे हो? कहती हूँ उसे फालतु टी०वी० देखने पराये घर में आकर अपमानित होने से तो यही अच्छा है एक टीवी खरीद लो।

मैं खुद।

तुम्हीं को तो कह रही हैं। पागल हो गई हो क्या? मैं टीवी खरीद कर कहाँ रहुँगा? क्यों गृहणी नहीं है तो क्या अपना कमरा भी नहीं है?

वह अभी भी वैसा ही है? ठीक वैसा ही है। सिर्फ मैं उस कमरे में रहने लगा हूँ किताबें?

वह भी है?

अलमारी की चाभी?

उसी कील पर टंगी रहती है?

पचास सालों के भीतर कुछ भी परिवर्तन ना आया? कोई किताबें भी तो नहीं पढ़ता।

ठीक है खरीद डालो एक टीवी और उसी कमरे में रखो।

क्या कहती हो दलू, अचानक एक टी०वी० खरीदकर मैं भूत की तरह अकेला-अकेला बैठा देखता रहूँ?

अकेले ही क्यों? मोहल्ले की लड़की भी तो आकर बैठ सकती है वहाँ?

दलू।

अरे बाबा। हाथ छोड़ो। अभी भी सात सौ निगाहें और तरह से हँसी उड़ायेंगी।

दलू।

क्या हुआ? गला क्यों बैठने लगा? पचास सालों में एक बार भी तो।

तुमने भी तो कसम दिलवा लिया था।

और तुम भी बैठे-बैठे उसी कसम का पालन करते रह गये। मैं भी आश्चर्य से सोचा करती कि इन्सान क्या एक बार तीर्थ करने को नहीं जा सकता? उम्र तो तीर्थ धर्म करने की हो गई है। जाते क्यों कलियुग तीर्थ कलकत्ते में जड़े जमाये बैठे हुए थे। पर तीर्थ की हालत को देख रहे हो?

देख तो रहा हूँ।

हाँ इस बीच काफी प्रगतिशीलता प्रवेश कर चुकी है। बड़ी कुमारी लड़कियाँ प्रेम को बहादुरी समझ उसका बखान किये घूमती है। फिर, इस बुढ़ापे में किसी की परवाह क्यों करूं? जल्दी से खरीद डालो, मुझे भी। एक बहाना मिल जाये, रेशमी चादर ओढ़कर गड़मड़ा कर सड़क से चल कर वहाँ प्रवेश करूंगी।

दलू।

क्या? तुम्हारा गला तो धीरे-धीरे ही निस्तेज होता जा रहा हैं।

फिर से कलकत्ता छोड़कर नहीं जाओगी पहले यह बोलो।

अभी मैं यह बात कैसी जोर देकर कह सकती हूँ? काल की गति के साथ कब किस ओर मन ले जाये? आधा घंटा पहले भी तो टिकट के लिए हल्ला मचा रही थी।

तू चली आई क्यों?

दलूमौसी ने मेरे पास आकर इस बुढ़ापे में भी पहले की तरह च्योंटी काटी।

मैं बोली--आहा ! शत वर्षों के पश्चात मैं काहे छन्दपतन करती? क्या-क्या बातें हुई वह तो मैंने दो मंजिल वाले कमरे में बैठ कर ही अनुमान कर लिया।

मतलब क्या समझी?

समझ गई वह जल्दी से एक टीवी सेट खरीदेगा और फिर निर्लज्ज की तरह पराये घर में टीवी देखने आनी बन्द कर देगा। पर तू अगर लोभी की तरह खेल देखने या खेल दिखाने जाये तो-

इतनी बातें तुझसे किसने कही?

किसी ने भी नहीं।

सच है या नहीं बताओ।

सत्य है पूरी तरह से। मैं क्या करती बोल।

प्रबुद्ध-पत्नी, लड़की ने उसका कितना अपमान किया? मेरा सिर गुस्से से फटने को हुआ था।

तभी तो देख रही हूँ वृन्दावन वाला टिकट बेकार ही गया क्या कहती है?

दलूमौसी ने एक रहस्यमयी मुस्कान फैला दी।

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