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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

23

जीवन ही तो बेकार चल गया। यह तो एक साधारण-सा रेलगाड़ी का टिकट है।

बेचारा प्रबुद्ध !

शतचेष्टा के पश्चात भी भग्नदूत की भूमिका में आन खड़ा था।

बुआ जी मैंने काफी चेष्टा की पर सामने वाले हफ्ते के पहले एक भी रिजर्वेशन नहीं हैं।

बुआ ने भी स्नेहमयी उदार मुस्कान से कहा, नहीं हुआ तो जाने दे। तू भी बेटा वह सब लेकर परेशान मत हो। मैं भी सोच रही थी जब जन्म स्थान में आ गई हूँ तो कुछ दिन ठहर ही जाऊँ। तुम लोगों को कुछ भी परेशानी करने की जरूरत नहीं है। दूआ वाला कमरा तो पड़ी ही है। भाग की माँ थी तभी शायद उसे गंगाप्राप्ति नहीं हुई। आहा उस चमकते, स्वच्छ कमरे में दुनिया भर के कबाड़ भरे हैं, और पिटारी में उनके लड्डूगोपाल किस समय के सूखे फूल-तुलसी-चन्द्र लगाये मुँह सुखा कर बैठे हैं। देखकर मन भी भर आया और मोह भी जागी। तभी मैं सोच रही थी उसे वहा से उतार कर-कमरे को साफ करवा कर-

प्रबुद्ध ने भी इधर-उधर देखकर कि आस-पास पत्नी तो नहीं है, निश्चिन्त होकर उत्साहित होकर कहा-

तब तो बुआ जी बड़ी ही बढ़िया बात होगी, पिता जी से सुना था कि ठाकुरजी बड़े ही जाग्रत थे। पर आप इस सर्व विसर्जित कलकत्ते में रह सकेंगी?

शतदलवासिनी भी एक छोटी हँसी हँस कर बोली, देखें-हमेशा से तो यही मेरा अपना स्थान था।

चौबीस बरस की अवस्था में दलूमौसी ने कलकत्ता त्यागा था, फिर पचास सालों में इधर झांकने तक भी नहीं आई थीं।

फिर भी उन्होंने द्विधाहीन कण्ठ से इसे अपना हमेशा का स्थान कहकर चला दिया। उन्हें जरा-सी भी इसे अपना बताने में परेशानी नहीं हुई।

भतीजे ने भी फिर इधर-उधर देखा। अभी आशंका की सम्भावना नहीं। टीवी चालू है पत्नी, बेटी दोनों वहीं हैं।

वह और भी उद्दीपना से बोलने लगा, वह तो है ही। मेरी भी बड़ी इच्छा हो रही थी आपको कुछ दिन और रहने के लिए कहूँ। पर कलकत्ता के सम्बन्ध में जब इतना विराग देखा तो हिम्मत नहीं हुई।

शतदलवासिनी ने अपनी मुस्कान को थोड़ा रमणीय, कोमल, स्नेहपूर्ण कर डाला–हाँ पहली बार तो कलकत्ता का बिगड़ा, नग्न रूप देख कर अन्दर ही अन्दर जल गई थी। पर क्या है रे, दो दिन रहते-रहते समझ गई कि काल के हाथों हमारा स्वर्ण जैसा कलकत्ता अपना ऐश्वर्य, प्रताप, सौंदर्य, सौष्टव खो कर भी अन्दर से ज्यों का त्यों है, उसके प्राणों पर काल अपना कुटिल स्पर्श-प्रहार करने में असफल रह गया। काल उससे जीत नहीं पाया।

 

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