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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

5

ऐसी घटना हर घर में ही घटती रहती। पर ऐसा कभी नहीं सुना कि किसी घर की बड़ी कुमारी लड़की पद्य रचती थी।

ना। ऐसी दुर्घटना दृष्टिगोचर नहीं हुई। किसी अनाचारी, पतित रिश्तेदार के यहाँ से भी नहीं। और इस पवित्र सनातन परिवार में ऐसी घटना घट गई।

हाँ पहले ही तो घटी थी पर अप्रत्यक्ष थी। जिससे प्रत्यक्ष ना हो। इसकी चेष्टा अनवरत चलती थी। अचानक सारी सतर्कता बेकार होकर सब कुछ प्रकाशित हो उठा।

हाँ-एक विश्वासघातक की छलना से ऐसा हो पाया। उसी बालक वृन्द में से ऐसी छलनी की। इनमें से सबसे शैतान था मझली दादी का नाती बूढ़ा। जिसकी उम्र छह बरस की रही होगी।

चालू बच्चा हमेशा टीनएजरों के साथ बना रहता। अपनी छलनामयी हँसी-जो उसके दो दाँतों के गिरने से मुँह को अजीब-सा बना दिया उसी से हँसके हमारी रामस्त बातों का सार जानने की अदम्य वासना और जान जाता तो एक शठता की हँसी-हँसकर उसे देख किसका शरीर क्रोध से न जल उठता?

अगर उसे कहा जाता, तुम हर वक्त बड़ों के साथ क्यों रहते हो हम क्या बड़ों के साथ रहते हैं। बस हो जाता। तेज चीख से सारे घर को सुना-सुनाकर रोता और उचित जगह पर अपनी अर्जी पेश करता, वे मुझे मार रहे हैं, भगा दिया। कहती है उनके साथ रह कर खराब बातें सुनकर मैं भी खराब हो जाऊँगा।

बाद में हमारे भाग में जो लांछना रहती थी वह तो वर्णनातीत है।

हम किसी भी प्रकार से बेर का अचार या इमली को अचार का जुगाड़ करते तो वह उसमें हिस्सा बटाता। खाकर हाथ चाटते-चाटते माँ को सुनाकर खाँसता। जब माँ पूछती-काहे को खाँस रहा है?

बेर के अचार का बीज गले में-।

बेर का अचार। जुकाम से बुरा हाल था। किसने दिया बेर को आचार?

उन्होंने।

मतलब।

चिनूबुआ, दलूबुआ जो रोज दोपहर को अचार की चोरी करती हैं।

फिर। चोरी जैसे खतरनाक जुर्म के साथ एक और जुर्म शामिल हो जाता-वह था अशुद्ध कपड़ों से चोरी। फिर कहना पड़ा धुले कपड़े पहनकर गये थे। वह भी गंगाजल के लोटे से हाथ धोकर। तीन बार कहलवाया जाता। सब तरह की चोरी के संवाददाता का जिम्मा बूढ़े ने अपने कंधों पर लिया हुआ था। पता है दादी, दलूबुआ चुपचाप नई चाची के आईने के पास से पाउडर, इत्र लगा कर आती हैं और नई चाची की कंघी से बाल काढ़ कर अपना चेहरा भी घुमाफिर कर देखा करती हैं।

तब धिक्कार और समालोचना का कहर बरसना, शुरू हो जाता था। सभी का यही प्रश्न होता-कुमारी लड़कियों को इतना श्रृंगार किसलिए?

बूढ़ा जब अपने गिरे दो दाँतों वाले पोपले मुँह से इन सब खबरों को परिवेशित करता वह भी कुटिलता से। तब वह दादी, माँ, बुआ, बुआ दादी को वह देवदूत नजर आता था। जो स्वर्ग से सीधा यहाँ आकर भोलेपन एवम सरलता से सत्य को उजागर कर रहा हो। इसी के नालिश करना कहते हैं। यह बात वे समझ कर भी नहीं समझती थीं।

तब उस उम्र में स्कूल जाने का रिवाज ना था। पाँच बरस में-यही पर लिखके एक रस्म कर दिया गया। फिर घर में पढ़ने वाले सम्प्रदाय का सदस्य था वह बूढ़ा। स्कूल में तो वह आठ, नौ बरस की उम्र में जाकर भर्ती होगा।

कब तक सहते? एक दिन दलूमौसी ने अपने इस रिश्ते के भतीजे को पीट डाला।

बस फिर क्या था उस बूढ़े भतीजे ने इस अपमान का बदला भी ले डाला। रोते-रोते घोषणा कर दी पद्य लिखकर घमण्डी हो गई है।

मुझे मार कर अधमरा कर डाला है। पद्य लिख कर बड़ा तीर मारा है, अब मुझे मारने लगी है।

घर में बिजली गिरी। क्या इस मारने के कारण? नहीं बूढ़ा की शिकायत तो बीच में ही मुल्तवी रह गई। सारा घर इस पद्य रचने वाले संवाद से व्याकुल हो गया था।

कौन रचता है पद्य?

दलू मौसी और कौन? जो कागज भर-भर कर लिखती है। इस संवाद को तो ऊपरी स्तर तक पहुँचना ही था। उसका निश्चित परिणाम था एक बज्र निनाद का सुनाई पड़ना। क्योंकि इस प्राचीन सनातन परिवार की लड़की पद्य लिखती है, वह भी कागज भर-भर कर।

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