नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
योग्यता की परख
प्राचीन काल की कथा है कि एक बार महाराज रथवीति ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था। महाराज अपनी पत्नी एवं पुत्री के साथ यज्ञवेदी के समीप ही एक आसन पर विराजमान थे। उनके सामने दूसरी ओर ऋषि अर्चनाना बैठे हुए थे और राजकन्या को निहार रहे थे। सहसा उनके मन में भाव आया, 'यह कन्या कितनी सुशील और लावण्यमयी है। इतना विचार आते ही उनकी दृष्टि अपने पुत्र स्यावाश्व की ओर गयी। उस पर भी यौवन का निखार था किन्तु आँखों से सात्विकता झलकती थी।
सहसा ऋषि के मुख से निकल गया, "राजन्! मैं अपनी पुत्रवधू के रूप में आपकी कन्या की याचना करता हूँ।"
ऋषि अर्चनाना की याचना सुन कर उपस्थित ऋषि-मण्डली आश्चर्यचकित रह गयी। उधर महाराज के मुख से भी निकला, "यह तो आपकी बड़ी कृपा होगी। मेरी पुत्री के लिए इससे बढ़ कर सौभाग्य क्या होगा कि वह महर्षि अत्रि के आश्रम में निवास करे।"
उन दोनों में परस्पर वार्तालाप हो रहा था कि उसी अवधि में ऋषिपुत्र स्यावाश्व ने राजकन्या की ओर और राजकन्या ने ऋषिपुत्र स्यावाश्व की ओर कनखियों से निहारा। मानो मूक भाषा में दोनों परस्पर वार्तालाप कर रहे हों। तभी महाराज के मुख से अगला वाक्य निकला, "महर्षे! हमारा कुल तो राजर्षियों का कुल है।हम अपनी कन्या मन्त्रदर्शी ऋषियों को ही सौंप सकते हैं?"
स्यावाश्व यह सुन कर गम्भीर हो गया, मानो कुछ सोच रहा हो। इससे पूर्व जो कुछ राजकन्या से दृष्टि मिलने पर सोचा था वह यों ही रह गया और उसने धीरता से अपने पिता से कहा, "तात! मैं अपनी कुलयोग्यता सिद्ध करने के लिए ऋषि-पद प्राप्त करूँगा। मेरे लिए राजकन्या उतनी महत्व की नहीं जितना कि ऋषि-पद है।"
स्यावाश्व ने अपने पिता के चरणस्पर्श किये और प्रण किया कि जब तकउसको ऋषिपद प्राप्त नहीं होगा वह आश्रम में नहीं लौटेगा। इतना कह कर वे उठे और वहाँ से प्रस्थान किया। इस प्रकार पर्यटन करते-करते वह दूसरे राज्य में चले गये।
वहाँ के राजा को जब विदित हुआ कि महर्षि अर्चनाना के पुत्र उनके राज्य में भ्रमण कर रहे हैं तो वे उनके समीप गये और उन्हें अपने भवन में ले जाकर उनका आदर-सत्कार किया। अपार धन और सहस्रों गौओं का दान किया। किन्तु स्यावाश्व को तो इस सबसे कोई सरोकार था ही नहीं। जब तक वे ऋषि-पद प्राप्त न कर लें तब तक अपने प्रण के अनुसार उनके लिए अपने आश्रम में लौटना सम्भव नहीं था।
स्यवाश्व वहाँ से वन की ओर चले गये और तपस्या करने लगे।
स्यवाश्व की तपस्या और परिश्रम फलीभूत हुए। मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर उन्हें मन्त्रदर्शी ऋषि-पद प्रदान किया। पहचान के लिए उन्होंने श्यावाश्व को रुक्ममाला प्रदान की। स्यवाश्व अपने आश्रम लौट आये।
महाराज रथवीति को जब विदित हुआ कि स्यवाश्व मन्त्रदर्शी ऋषि-पद प्राप्त कर अपने आश्रम लौट चुके हैं तो वे महारानी और कन्या को साथ लेकर महर्षि अत्रि के आश्रम में जा पहुंचे। उन्होंने महर्षि की अर्चना अभ्यर्थना की और फिर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बोले, "यह हमारा परम सौभाग्य है कि हमारी कन्या आपके पौत्र की जीवन-संगिनी बन रही है।"
इस प्रकार दोनों का परस्पर विवाह हो गया। प्रयत्न करने पर मनुष्य बड़े से बड़ा पद भी प्राप्त कर सकता है।
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