सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :978-1-61301-681-7

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

पराई स्त्री में आसक्ति

महाभारत काल की बात है कि पाँचों पाण्डव द्रौपदी के साथ वनवास के प्रकरण में अज्ञातवास के दिनों में वेश और नाम बदलकर राजा विराट के यहाँ रह रहे थे। उस समय द्रौपदी का नाम सैरन्ध्री था। वह विराट नरेश की रानी सुदेषणा की दासी बन कर किसी प्रकार समय व्यतीत कर रही थी।

राजा विराट का प्रधान सेनापति कीचक रानी सुदेषणा का भाई था। एक तो वह राजा का साला था और दूसरे, सेना उसके अधिकार में थी, तीसरे, वह स्वयं प्रख्यात बलवान था और उसके समान ही उसके एक सौ पाँच भाई उसका अनुगमन करते थे। इन सब कारणों से कीचक निरंकुश तथा मदान्ध हो गया था। वह सदा मनमानी करता था। राजा विराट का भी उसे कोई भय या संकोच नहीं था इसके विपरीत राजा ही उससे दबे रहते थे और उसके अनुचित व्यवहार पर भी कुछ कहने का साहस नहीं करते थे। एक बार किसी कार्यवश दुरात्मा कीचक अपनी बहन सुदेषणा के भवन मेंगया। वहाँ अपूर्व लावण्यवतीदासी सैरन्ध्री को देख कर वह उस पर आसक्त हो गया। कीचक ने सैरन्ध्री को नाना प्रकार के प्रलोभन दिये। सैरन्ध्री ने उसे समझाया, "मैं पतिव्रता हूँ! अपने पतियों के अतिरिक्त मैं कभी किसी पुरुष की कामना नहीं करती। तुम अपना पापपूर्ण विचार त्याग दो।"

किन्तु कामान्ध कीचक ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। यहाँ तक कि उसने अपनी बहन सुदेषणा को भी राजी कर लिया कि वे सैरन्ध्री को उसके भवन में भेज देंगी। रानी सुदेषणा ने सैरन्ध्री के अस्वीकार करने पर भी अधिकार प्रकट करते हुए डाँट कर उसे कीचक के भवन में जाकर अपने लिए कुछ सामग्री लाने को कह दिया। सैरन्ध्री जब कीचक के भवन पहुंची, तब वह दुष्ट उसके साथ बल प्रयोग करने पर उतारू हो गया। सैरन्ध्री उसे धक्का देकर भागी और राजसभा में पहुंची। परन्तु कीचक ने वहाँ पहुँचकर महाराज विराट के सामने ही द्रौपदी के केश पकड़ कर उसे भूमि पर पटक दिया और पैर की एक ठोकर लगा दी। राजा विराट कुछ भी बोलने का साहस नहीं कर सके।

सैरन्ध्री को विदित हो गया कि इस दुरात्मा से राजा विराट उसकी रक्षा नहीं कर सकते। कीचक और भी धृष्ट हो गया। अन्त में व्याकुल होकर रात्रि में द्रौपदी भीमसेन के पास गयी और रोकर उन्होंने भीमसेन से अपनी व्यथा-कथा कह सुनाई। भीमसेन ने उन्हें आश्वस्त किया। दूसरे दिन सैरन्ध्री ने भीमसेन के परामर्श के अनुसार कीचक से प्रसन्नतापूर्वक बातें की और रात्रि में उसे नाट्यशाला में आने के लिए कह दिया।

रात्रि में वह नाट्यशाला सूनी रहती थी। हाँ, दिन में कन्याओं के विश्राम के लिए वहाँ एक विशाल पलंग रखा हुआ था। रात्रि का अन्धकार हो जाने पर भीमसेन चुपचाप नाट्यशाला के उस पलंग पर आकर सो रहे। कामान्ध कीचक सज-धज कर वहाँ आया। अँधेरे में पलंग पर बैठ गया और भीमसेन को सैरन्ध्री समझ कर उनके ऊपर उसने हाथ रखा। उछल कर भीमसेन ने उसे नीचे पटक दिया और वे उस दुरात्मा की छाती पर चढ़ बैठे।

कीचक बहुत बलवान था। वह भीमसेन से भिड़ गया। दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा, किन्तु भीमसेन ने उसे शीघ्र पछाड़ दिया, उसका गला घोंट कर उसे मार डाला। फिर उसका मस्तक तथा हाथ-पैर इतने जोर से दबा दिये कि वे सब धड़ के भीतर घुस गये। कीचक का शरीर एक डरावना लोथड़ा बन गया।

प्रातःकाल सैरन्ध्री ने ही लोगों को दिखाया कि उसका अपमान करने वाला कीचक किस दुर्दशा को प्राप्त हुआ है। परन्तु कीचक के एक सौ पाँच भाइयों ने सैरन्ध्री को पकड़ कर बाँध लिया। वे उसे कीचक के शव के साथ चिता में जला देने के लिए श्मशान ले गये। सैरन्ध्री क्रन्दन करती जा रही थी। उसका विलाप सुन कर भीमसेन नगर का परकोटा कूद कर श्मशान पहुँचे। उन्होंने एक वृक्ष उखाड़ कर कन्धे पर उठा लिया और उसी से कीचक के सब भाइयों को यमलोक भेज दिया। सैरन्ध्री के बन्धन काट दिये। अपनी कामासक्ति के कारण दुरात्मा कीचक मारा गया और पापी भाई का पक्ष लेने के कारण एक सौ पाँच भाई भी बुरी मौत मारे गये।  

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