सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :978-1-61301-681-7

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

निर्धनता के धनी

काशी में एक बहुत प्रसिद्ध किन्तु निर्धनपण्डित रहते थे। उनका निवास गंगा के किनारे एक टूटी-सी झोपड़ी में था। घर में पति-पत्नी और एक कन्याकुल तीन प्राणी थे। वे नित्य प्रातःकाल से सायं काल तक तमाम विद्यार्थियों को संस्कृत पढ़ाते थे लेकिन किसी से कुछ लेते नहीं थे। बिना माँगे जो मिल जाता था, उसी पर गुजारा चल रहा था।

समय बीतने के साथ पण्डित जी के त्याग और तपस्या का समाचार काशी नरेश को भी मिला। काशी नरेश अपने महल में गंगा के उस पार रहते थे। उन्होंने पण्डित जी के पास सन्देश भेजा, "आप कभी राजप्रासाद में पधार सकें तो महारानी सहित श्रीमान का सत्कार करके हम स्वयं को सौभाग्यशाली मानेंगे।"

पण्डित जी ने निमन्त्रण को स्वीकार तो कर लिया किन्तु बहुत समय तक उस पर विचार करते रहे कि जाना चाहिए अथवा नहीं। फिर सोचा कि चले जाने में कोई हानि नहीं, तो एक दिन जाने का निश्चय कर लिया।

यह निश्चय करने के बाद एक दिन राजमहल जाने के विचार से पण्डित अकेले ही घर से चल कर घाट पहुँच गये और उस पार जाने के लिए नाव पर भी बैठ गये। नाव चलने से पहले नाविक ने पार जाने के पारिश्रमिक के रूप में एक टका पण्डित जी से माँगा। पण्डित बोले, "भाई! हमारे पास टका कहाँ से आयेगा?"

नाविक बोला, "एक टका भी पास नहीं रखते, मानो पण्डित नागेश भट्ट चले आये हैं।"

यह सुन पण्डित जी तुरन्त नौका से उतर गये। उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं ही नागेश भट्ट हूँ। वे उतर कर सीधे घर की ओर चल दिये।

वहाँ उपस्थित लोगों में से अनेक पण्डित नागेश भट्ट को जानते थे, उन्होंने नाविक से कहा, "हाँ भाई, ये पण्डित नागेश भट्ट ही हैं।"

नाविक भट्ट जी को पकड़ने के लिए दौड़ा। कुछ दूर पर उसको वह मिल भी गये। नाविक ने क्षमा माँगते हुए कहा, "मुझसे अनजाने में बड़ा अपराध हो गया है भगवन्! कृपया वापस चलिए, मैं आपको पार ले जाऊँगा।"

पण्डित जी बोले, "तुम्हारा कल्याण हो नाविक! तुमने मुझे बड़े पाप से बचा दिया है। जिस पण्डित नागेश के त्याग की कीर्ति राजा से रंक तक फैली हुई है, उसे किसी के द्वार पर जाना शोभा नहीं देता। अब मुझे पार नहीं जाना है। तुम अपनी नाव ले जाओ।"

यह कह कर पण्डित जी अपने स्थान की ओर चलते बने।

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