नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
सच्चा न्याय
एक दिन काशी नरेश की महारानी अपनी दासियों के साथ वरुणा स्नान करने के लिए गयी थी। राजा की आज्ञानुसार उस समय नदी के तट पर किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। नदी के पास जो झोंपड़ियाँ थीं, उनमें रहने वाले लोगों को भी राज-सेवकों ने वहाँ से हटा दिया था। माघ का महीना था। प्रातःकाल नदी में स्नान करने के कारण रानी ठंड से काँपने लगी। उन्होंने इधर-उधर देखा किन्तु कहीं सूखी लकड़ियाँ नहीं दिखाई दीं। रानी ने दासी से कहा, "इनमें से किसी एक झोपड़ी में आग लगा दे, मुझे ठंड लग रही है।"
दासी बोली, "महारानी! इन झोंपड़ियों में या तो साधु-सन्त रहते होंगे या दीन परिवार के लोग। इस शीतकाल में झोंपड़ा जल जाने पर वे कहाँ जायेंगे?"
रानी जी का नाम तो करुणा था, किन्तु राजमहलों के ऐश्वर्य में पली होने के कारण उन्हें दीन-हीनों के कष्ट का कुछ अनुभव नहीं था। उन्होंने क्रोधित होकर दूसरी दासी से कहा, "यह बड़ी दयालु बनी है। इसे मेरे सामने से हटा दो और इस झोंपड़े में तुरन्त आग लगा दो।"
रानी की आज्ञा का पालन हुआ। किन्तु एक झोंपड़ी में लगी आग वायु के झोंके से इधर-उधर फैल गयी और सब झोंपड़े जल गये। रानी को ठंड दूर होने से बड़ी प्रसन्नता हुई।
आग ताप कर वे राजभवन में पहुंचीं कि उससे पूर्व ही जिनके झोंपड़े जलगये थे, वे गरीबराजसभा में पहुँच गये थे। राजा ने जब उनका दुखड़ा सुना तो उनको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अन्तःपुर में जाकर रानी से कहा, "यह तुमने क्या किया, तुमने अपने लिये प्रजा के घर जलवा कर कितना अन्याय किया है, इसका कुछ ध्यान है तुम्हें?"
रानी अत्यन्त रूपवती थीं। महाराज उन्हें बहुत मानते थे। अपने रूप और अधिकार का रानी को बड़ा गर्व था। वे बोली, "आप उन घास के गन्दे झोंपड़ों को घर बता रहे हैं? वे तो फूंक देने ही योग्य थे। इसमें अन्याय की क्या बात है?"
महाराज ने कठोर मुद्रा में कहा, "न्याय सबके लिए समान होता है। तुमने लोगों को कितना कष्ट दिया है। वे झोंपड़े गरीबों के लिए कितने मूल्यवान् हैं, यहतुम अब समझ जाओगी।"
महाराज ने दासियों को आज्ञा दी, "रानी के राजसी वस्त्र तथा आभूषण उतार लो। इन्हें एक फटा वस्त्र पहना कर राजसभा में ले आओ।"
रानी कुछ कहें इससे पहले महाराज अन्तःपुर से जा चुके थे।
दासियों ने राजाज्ञा का पालन किया। एक भिखारिन के समान फटे वस्त्र पहने रानी जब राजसभा में उपस्थित की गयीं, तब न्यायासन पर बैठे महाराज की न्याय घोषणा प्रजा ने सुनी। वे कह रहे थे, "जब तक मनुष्य स्वयं विपत्ति में नहीं पड़ता, दूसरों के कष्टों की व्यथा नहीं समझ सकता।
"रानी जी! आपको राजभवन से निष्कासित किया जा रहा है। वे सब झोंपड़े, जो आपने जलवा दिये हैं, भिक्षा माँग कर जब आप बनवा देंगी, तभी राजभवन में आ सकेंगी।"
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