सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :978-1-61301-681-7

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

मिथ्या-पाण्डित्य

जब पूर्वी बंगाल और आज का बंगला देश भारत का ही अंग था यह उस समय की घटना है और स्वामी विवेकानन्द उस समय जीवित थे। पूर्वी बंगाल के कछ जिलों में उस वर्ष भयंकर अकाल पड़ गया था। स्वामी जी बड़े चिन्तित रहते थे। वे सहायता के लिए अन्न-धन एकत्रित करने में जुटे थे। इसी प्रसंग में जब वे ढाका में थे तो कुछ वेदान्ती पण्डित उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए उपस्थित हुए।

स्वामी जी ने आगन्तुक पण्डितों का आदर-सत्कार किया और फिर अकाल की चर्चा करते हए कहा, "जब मैं अकाल से मरते हुए लोगों को देखता हूँ तो मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। न जाने क्या इच्छा है प्रभु की।"

सभी पण्डित यह सुन कर न केवल मौन रहे बल्कि एक-दूसरे से नजर मिलाकर आँखों-आँखों में बात करते हुए मुस्कुराने लगे। स्वामी जी ने उनकी यह विचित्र प्रतिक्रिया देखी तो उनको आश्चर्य होने लगा। उन्होंने पूछ ही लिया, "आप मेरी बात पर हँस क्यों रहे हैं?"

एक महापण्डित बोला, "स्वामी जी! हम तो समझते थे कि आप वीतराग संन्यासी हैं। सांसारिक सुख-दुःख से ऊपर हैं। किन्तु आप तो इस नाशवान शरीर के लिए अश्रुपात कर रहे हैं। आत्मा के निकल जाने पर जो शरीर मिट्टी मात्र रह जाता है, उसके लिए इतना रोना? आश्चर्य है।"

अब आश्चर्यचकित होने की बारी स्वामी जी की थी। उनके कुतर्क सुन कर वे कुछ क्षण के लिए तो अवाक् से रह गये फिर आवेश में उन्होंने अपना डंडा उठा लिया और उन पण्डित जी की ओर बढ़े। बोले, "लो आज आपकी परीक्षा है। मैं डंडे से प्रहार करता हूँ। निश्चिन्त रहिये, यह डंडा आपकी आत्मा को मारना तो क्या उसका स्पर्श भी नहीं करेगा। केवल इस नश्वर देह को ही मारेगा। यदि आप अपनी बात के धनी हैं और पण्डित हैं तो अपने स्थान से तनिक भी नहीं हिलना।"

स्वामी जी का वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि वह पण्डित ऐसा प्राण बचा कर भागा कि कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिया। स्वामी जी ने जब उसके साथियों की ओर दृष्टि घुमाई तो वे भी उस कक्ष में कहीं दिखाई नहीं दिये। वे कब भागे, स्वामी जी को पता ही नहीं चला।

इस मिथ्या पाण्डित्य ने मानवता का बड़ा अहित किया है। स्वामी विवेकानन्द इसी के परिमार्जन में आजीवन लगे रहे।  

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