सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :978-1-61301-681-7

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

कर्ण की दानशीलता

दानवीर कर्ण महाभारत युद्ध में पराजित होकर भूमि पर पड़ा था। कृष्ण ने अर्जुन को उसके समीप जाकर सान्त्वना देने के लिए कहा। अर्जुन की समझ में कुछ नहीं आया। कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "अर्जुन! तुम विद्यार्थी का वेश धारण कर लो।"

अर्जुन की समझ में तो कुछ नहीं आया किन्तु कृष्ण का कहना वह टाल नहीं सकते थे, अतः उन्होंने विद्यार्थी का वेश धारण कर लिया।

कृष्ण ने स्वयं ब्राह्मण का वेश धारण किया और अर्जुन को साथ लेकर चल दिये और रणभूमि में जा पहुँचे। कर्ण को ढूँढ़ा और उसके पास पहुँच कर बोले, "महाराज कर्ण की जय हो, दानवीर कर्ण महाराज की जय हो।"

मूर्छित अवस्था में पड़े कर्ण ने जैसे ही उधर देखा तोपाया कि दो ब्राह्मणवेशधारी व्यक्ति वहाँ पर खड़े उसका जयघोष कर रहे हैं। कुछ क्षण विचार करके कर्ण ने कहा, "पूज्य ब्राह्मणों! आप गलत अवसर पर पधारे हैं। मैं घायल पड़ा हुआ हूँ, इस समय आपको क्या दान कर सकता हूँ। मुझे दुःख इसी बात का है कि अपने अन्तिम समय में मैं दान करने से वंचित रहा जा रहा हूँ।"

"राजन्! हम तो यहाँ केवल आपके अन्तिम दर्शन करने के विचार से आये हैं, किसी दान की इच्छा से नहीं।"

"किन्तु कर्ण ब्राह्मण को कुछ दियेबिना खालीहाथ जाने नहीं देगा।" कर्ण ने कहा और अपने सोने के दाँत तोड़ने का यत्न करने लगा। किसी प्रकार दाँत तोड़े और उन्हें दानस्वरूप ब्राह्मणों को देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो ब्राह्मणरूपी कृष्ण बोले, "यह स्वर्ण तो रक्त से सना हुआ है और इसके भीतर माँस भी है। हम तो इसकोछू भी नहीं सकते।"

यह उत्तर सुन कर कर्ण उत्तेजित हो गया और वह उसी अवस्था में उठ कर बैठ गया। उसने अपने तीर की नोक से दाँतों के भीतर की हड्डी को बाहर निकाला।

जब यह काम हो गया तो उसने घायला अवस्था में ही अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाई और कसकर धरती पर तीर मारा। धरती के भीतर तीर घुसते ही पानी का फव्वारा-सा निकल आया। कर्ण ने रक्त सने सोने के दाँतोंको उस जल से धोया और उन्हें ब्राह्मणों के चरणों के पास रख दिया।

कर्ण थक गया था। पुनः धरती पर लेट गया और बोला, "मैं आप लोगों को अब पहचान गया हूँ। आप कृष्ण हैं और यह अर्जुन है। किन्तु इस समय आप ब्राह्मण के वेश में आये हैं, इसलिए बिना स्वर्णदान किये मैं आपको जाने नहीं दे सकता था।"

कृष्ण उत्साह में भर कर बोले, "दानवीर कर्ण महाराज की जय हो।"कृष्ण की इस जयकार पर प्रसन्न होकर कर्ण ने प्रणाम करते हुए कहा, "धर्मावतार कृष्ण को कर्ण का प्रणाम।"

इतना कह कर वह अचेत हो गया, सिर लटक गया। उसके प्राण पखेरू शायद इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे। कृष्ण ने उसके दाँत के उन स्वर्ण पत्रों को उसके दाएँ हाथ की हथेली पर चिपका दिया, जिससे वह नित्य दान किया करता था। इतना करने के उपरान्त कष्ण ने अर्जुन से कहा, "अर्जुन ! दान का यह महान् सूर्य आज अस्त हो गया है। इसे प्रणाम करो।"  

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