नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
17
प्यासा जीवन
इस तट से भी, उस तट से भी,
जीवन प्यासा ही लौट चला,
पनघट से भी, मरघट से भी।
जितनी पीड़ा की जलन बढ़ी,
मन-कंचन निखर गया उतना,
उतने नभ में मधु दीप जले,
आँसू-घट बिखर गया जितना;
जितनी प्राणों की प्राकुलता,
उतना ही फूला हरसिंगार --
जितनी ही तीखी हाला पी,
उतना ही नयनों में खुमार;
इसलिए, न तुम ठिठको-झिझको,
बढ़ चलो कंटीली राहों पर,
हर मंजिल पर बाज़ार लगे,
दूकान सजी चौराहों पर,
दो घूंट जहाँ से मिलें, पियो,
मधु-चषकों से, विष-घट से भी।
इस तट से भी, उस तट से भी।
उस पके बुढ़ापे ने उस दिन
जो बात कही, वह गहरी थी,
पर, बचपन था नादान बहुत
औ' मस्त जवानी बहरी थी;
गीता, कुरान, इन्जील,
ग्रन्थसाहब आखिर लाचार हुए
इन प्रलय-प्रवाहों के पथ में
जो तट बाँधे, बेकार हुए;
पर, सहसा फिर अनजाने ही,
रुनझुन-रुनझुन टलमल-टलमल,
उन सलज सजीले चरणों की
बजती आईं ऐसी पायल,
तूफ़ान शमित हो मौन हुए
उन की धीमी आहट से भी।
इस तट से भी, उस तट से भी।।
हो क्रूर नियति ने छीन लिया
जिस दिन पनघट का अंगराग,
तब 'राम राम है सत्य' शोर सुन
जागा - मरघट का सुहाग;
कुछ खिले-अधखिले फूलों को
निष्ठुर पतझर ने नोंच लिया --
कुछ सद्य सिंदूरी माँगों को
अंधी जगती ने पोंछ दिया;
लेकिन जीवन-अमराई में फिर
कुहुक उठी यौवन-कोयल,
औ' वज्र कलेजा धरती का फिर
चीर चली कोंपल कोमल;
है मरण चीर कर मुखर सृजन,
नीरवतम अन्तरपट से भी।
इस तट से भी, उस तट से भी।
जब आकुल अन्तर की प्यासें
अधरों तक आने लगती हैं,
तब लाज छोड़ नन्हीं कलियाँ
खुल कर मुसकाने लगती हैं,
लेकिन मुसकानों के पीछे
आँसू उमड़ाए आते हैं --
हर दिल है क़बरिस्तान,
जहाँ अरमाँ दफ़नाए जाते हैं
पर अरमानों की क़ब्रों पर
जुड़ते हैं फिर से मधु मेले
जो झुलसे जेठ दोपहरी में,
फिर से सावन में हंस खेले,
दो ज्योति-नयन मुसकाते हैं
तम के गहरे घूंघट से भी।
इस तट से भी, उस तट से भी।
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