नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
|
0 |
श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
अपनी बात
भूमिका के सोपान द्वारा ही कृति तक पहुँचने का स्वभाव जिन का है, अपने उन्हीं पाठकों की सेवा में यह किंचित् गद्य निवेदित है।
पहले कवि के सम्बन्ध में।
जिस दिन सहज भाव से अनायास मेरी पहली कविता ने देह धरी; उस दिन मेरे व्यक्ति ने मेरे कवि के आविष्कार को अतीव विस्मय से अभिभूत हो कर निहारा। छूत की बीमारी की तरह कविता भी उड़ कर लगती है-यह उस दिन जाना। कवि के रूप में मैं जो कुछ हूँ उस के लिए उत्तरदायी है मेरी कवयित्री पत्नी रेखा जी।
प्रत्येक नई कविता के बाद मेरे व्यक्ति का वह विस्मय आज भी ज्यों का त्यों है।
पहली कविता की पहली दो पंक्तियाँ थीं --
तुम्हारे सम्बल का पाथेय।
बन गया मेरा अडिग अजेय।
'तुम' का यह सम्बोधन किस के प्रति है और मेरा अडिग अजेय बन जाने वाला वह 'सम्बल' क्या है-यही अनुसन्धान मेरे कवि का प्रेय है। कभी स-राग (पर्सनल) होकर और कभी तटस्थ (इम्पर्सनल) होकर मेरा कवि इस खोज में रत हुया है। यदि कभी उसने--
इस तरह झांको न मेरी आँख में तुम।
इस तरह आओ न इतने पास मेरे।
लिखा है, तो कभी
दो फूल खिले, दो धूल मिले।
है अन्त यही सब का निश्चित
दो दिन पीछे, दो दिन पहले !
लिख कर सम्बोधनहीन सूक्ति का सृजन किया है। इस संग्रह की कई कविताओं से यह बात स्पष्ट है।
अनेक स्थलों पर मेरा कवि एक ही कविता में स-राग और तटस्थ दिखाई पड़ता है। ऐसी कविताएँ मेरे विरुद्ध यह प्रमाणित करने के लिए शहादत में पेश की जा सकती हैं कि 'तुम' और 'सम्बल' के इस अनुसन्धान में मैं न केवल असफल रहा हूँ, अपितु एक हद तक बौखला भी गया हूँ।
मुझे ये दोनों आरोप स्वीकार हैं।
यही क्यों, मुझे तो यह भी स्वीकार है कि अपनी इस असफलता से मुझे सन्तोष है।
कारण जानने का अधिकार आप का है।
जब तक असफल हूँ, तब तक अनुसन्धाता हूँ, कवि हूँ; जब सफल हो जाऊँगा, उस 'तुम' और उस 'सम्बल' से साक्षात जब हो जाएगा, तब हो जाऊँगा जड़ ज्ञानी, निष्क्रिय पूर्ण ! आज मुखरता मेरा जीवन है, कल मौन मेरी मृत्यु होगी। मैं गायक रहना चाहता हूँ, गायन बनना मुझे अभीष्ट नहीं
असफलता मेरे कवि की साक्षी है और बौखलाहट अनुसन्धान के प्रति मेरी ईमानदारी की द्योतक।
फिर अपने कवि से मुझे असन्तोष क्यों हो ?
स-राग का विपर्यय मेरे निकट 'तटस्थ' है, वीतराग नहीं। व्यक्ति के रूप में जिन चेतनाओं, अनुभूतियों को मैं ग्रहण करता हूँ, कवि के रूप में उन्हीं को गाता हूँ। जहाँ मेरी कविता स-राग है, वहाँ मेरा कवि व्यष्टि परक है और जहाँ वह तटस्थ है, वहाँ उसका निवेदन समष्टिगत है।
व्यष्टि और समष्टि के बीच एक और दरमियाना दायरा है-समाज का। अपने कवि की सामाजिक चेतना से मैं संतुष्ट हूँ। 'एक बटन', 'बन्दी जीवन की आखिरी शाम', 'अविवाहित माँ' प्रभृति कविताएँ उसके प्रमाणस्वरूप इसी संग्रह में विद्यमान हैं।
आत्म-निवेदन के लिए मेरे कवि ने तीन माध्यमों का सहारा लिया है छन्दोबद्ध काव्य, छन्दमुक्त लयात्मक काव्य (गीले पंख', 'बन्दी जीवन की आखिरी शाम', 'संझा बेला', 'सुबह की बांग') और छन्दमुक्त, लयमुक्त, भावनात्मक, विचारात्मक काव्य ('एक बटन', 'दान और प्रतिदान', 'दृष्ट, दृष्टि और कोण')।
एक चौथे प्रकार का 'स्टाइल' इधर जोरों पर है- छन्दमुक्त, लयमुक्त, भावमुक्त, विचारमुक्त, काव्यमुक्त काव्यनाम।
उसका उदाहरण इस संग्रह में न होने से, सम्भव है, हमारे कुछ मित्र इस पुस्तक को प्रचलित काव्य-शैलियों की प्रतिनिधि रचना न स्वीकारें !
जाने क्यों उन मित्रों को सन्तुष्ट कर पाने की अपनी अक्षमता मुझे नहीं खलती!
इस शोब्देबाजी में मेरा मन कभी रमा ही नहीं, इसका मैं क्या करूँ !
यही बात भाषा के सम्बन्ध में भी।
सहज भाव से हिन्दी, उर्दू - कहिए हिन्दुस्तानी के जो शब्द अनुकूल बैठे वही मैंने अपनाए हैं।
अनमेल शब्दों के सप्रयास गुम्फन से पाठक को आतंकित करने का पराक्रम मुझ से हुआ ही नहीं।
जले पर नोन यह कि इस के लिए मैं लज्जित भी नहीं हूँ।
हिन्दी का यह दुर्भाग्य है अथवा सौभाग्य—यह तय करने का समय अभी पाएगा, परन्तु कविता की पीठ को दुरूह शब्दाडम्बर और उलझे, बेतुके विचारों के भार से तोड़ देने के हामी प्राज मुझे कोस तो सौ फीसदी सकते ही हैं।
सुना है कोसने से उमर बढ़ती है।
'गीले पंख' के पाठकों से एक बात की क्षमा मुझे अवश्य माँगनी है। इस संग्रह में मेरी सर्वश्रेष्ठ कविता संग्रहीत नहीं है।
इसका मुझे खेद भले ही हो, परन्तु वह इसमें शामिल की भी नहीं जा सकती थी। कारण, कि वह अभी लिखी ही नहीं गई है।
आशीर्वाद दें कि मैं अपने प्रति बराबर इतना आशावान रह सकूँ।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान,
नई दिल्ली
1959
|