नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
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याद फिर कसकी
याद फिर कसकी, कि जैसे खींचता हो प्राण कोई,
और मेरे होंठ जैसे सीं दिए कस कर किसी ने !
यह बड़ा अचरज, कि मैंने जब कभी भी मुक्ति चाही,
डगर बोली--मुझ सुहागिन को न जाना छोड़ राही;
और यदि अभिव्यक्त होने का कभी भी समय आया,
मैं अचेतन में अदेखे स्वप्न-जैसा छटपटाया;
यह सुना था,
प्यार पाटल की पँखुरियों पर पुलकती धूप-सा है--
यह सुना था,
प्यार प्राणों को परस से पूर करते रूप-सा है --
किन्तु मुझ को इन पँखुरियों के परस कब रास आए,
कुछ अधिक पागल किया है साँस में बसकर किसी ने,
और मेरे होंठ जैसे सीं दिए कस कर किसी ने।
शुक्रिया ग़म का, कि जिस ने कैद की कड़ियाँ घटा दीं,
दर्द दुश्मन है कि जिस ने उम्र घड़ियों की बढ़ा दीं
और जब इस कशमकश से बेतरह ऊबा हुआ मैं,
इस अनिश्चय की घुटन में कंठ तक डूबा हुआ मैं,
यदि अबींधे मोतियों के भाग्य-जैसा कसमसाया,
तो बुरा क्या --
यदि किसी शरबिद्ध पक्षी की तरह मैं डगमगाया,
तो बुरा क्या --
यदि हुआ अपराध मुझ से, आदमी था, माफ़ करते,
छीन ली मुसकान सारी दो घड़ी हँस कर किसी ने !
और मेरे होंठ जैसे सीं दिए कस कर किसी ने।
फाँस मिसरी की भले हो, किरकिराती है बराबर,
भूल चाहे प्यार की हो, रंग लाती है बराबर;
लाख फूलों में बसाओ, गन्ध की चादर उढ़ाओ,
किन्तु काँटा तो चुभेगा, सौ तरह उस को रिझाओ;
सच कहूँ तो शूल पहचाने न मैं ने,
बस किया है दोष इतना --
और यह भी सच, अहित को चीन्हता मैं,
शेष कब था होश इतना --
शीश हर दर पर नवाया, वक्ष से सब को लगाया,
सृष्टि ही सारी बदल दी, दृष्टि में गँस कर किसी ने !
और मेरे होंठ जैसे सीं दिए कस कर किसी ने।
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