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गीले पंख

रामानन्द दोषी

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1959
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15462
आईएसबीएन :0

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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…


3

ऐसी तो कोई बात न थी


ऐसी तो कोई बात न थी तुम रूठ गये,
दो-चार कदम ही साथ चले, फिर छूट गये,
मैं ने तो केवल यह समझाना चाहा था
 
ऊपर से चाहे एक नज़र आयें, लेकिन
मंजिल तक जाना और चीज़, मंज़िल पा जाना और बात।

कोई मुसकाता जाता है, हैं आँख किसी की नम ज़्यादा,
अब कौन गिने नभ पर तारे या धरती पर शबनम ज़्यादा;
है चलाचली की बेला भी, मेला भी कल-जैसा ही है
है दर्द सभी में पुरा हुआ, यह बात अलग, कुछ कम ज्यादा;
ये ज्ञान, धरम, तप, तीर्थ, नियम भी मान चुका,
बदनामों की सोहबत में गहरी छान चुका,
पर पहुंचा हूँ मैं जिस पर, वह निष्कर्ष यही

ऊपर से चाहे एक नज़र आयें, लेकिन
आँसू पी जाना और चीज़, पीकर मुसकाना और बात।
मंज़िल तक जाना और चीज़, मंज़िल पा जाना और बात।

जो पाँव तुम्हारे परस चुके, परिचित गलियारे लगते हैं,
जो साथ तुम्हारे बरस चुके, लोचन अनियारे लगते हैं;
यह तो कोई भी कह देगा, मैं बुरी तरह से छला गया
पर मेरी मजबूरी ऐसी, ये छल भी प्यारे लगते हैं;
यों तो अँगुली मुझ पर उठती ही रहती है,
जो जिस के जी में आये दुनिया कहती है,
पर मेरे अनुभव ने मुझ को यह बतलाया

ऊपर से चाहे एक नज़र आयें, लेकिन
पथ को अपनाना और चीज़, पथ का हो जाना और बात।
मंज़िल तकजाना और चीज़, मंज़िल पा जाना और बात।

हर सुबह किसी मंदिर को, औ' हर शाम किसी मयखाने को,
मैं जाया करता हूँ भक्तों की चरण-धूल ले आने को;
मंदिर ने छीनी आस्थाएँ, मयखाने ने होशोहवास
ये खूब रहा, मैं वहीं लुटा, था गया जहाँ कुछ पाने को!
पर खैर चलो, यह सौदा है हो जाता है,
खोने पाने का भी आपस में नाता है,
फिर भी मैं इतना तो कहना ही चाहूँगा
 
ऊपर से चाहे एक नज़र आयें, लेकिन
जग को बहलाना और चीज़, मन को समझाना और बात।

वह ही ज्यादा भरमाता है, जो खिला अभी तक दाँव नहीं,
वह ही ज़्यादा शीतल लगती, जो मिली अभी तक छाँव नहीं;
पर मेरा खुला निमन्त्रण है, जो चाहे परखे, अवसर है
पथ पर विश्वास चला करता, चलते मानव के पाँव नहीं;
बस इसीलिए विश्वास किसी का मत तोड़ो,
कोई भी गाँठ बिना श्रद्धा के मत जोड़ो,
मैं ने जो पाया सत्य, वही दोहराता हूँ

ऊपर से चाहे एक नज़र आयें, लेकिन
मोती मिल जाना और चीज़, मोती बिंध जाना और बात।
मंज़िल तक जाना और चीज़, मंज़िल पा जाना और बात।

ऐसी तो कोई बात न थी तुम रूठ गये,
दो-चार कदम ही साथ चले फिर छूट गये,
मैं ने तो केवल यह समझाना चाहा था।

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