नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
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वहाँ तुम हो, यहाँ मैं हूँ
सहम कर यों न रह जायो, न मन को बींधते जाओ,
अनल-अंगार में डूबे, वहाँ तुम हो, यहाँ मैं हूँ।
अकेले तुम नहीं हो वक्ष में जिस के गड़ीं फाँसें,
नहीं केवल तुम्हारी इस घुटन में सुध रहीं साँसें;
अधर कुछ इस तरह सूखे, हजारों चट उभर आईं
नहीं केवल तुम्हारी आँख के नीचे पड़ी झाँईं;
यों सोचो तो, तुम्हारा और मेरा वास्ता क्या है !
मगर यह बात कहने के अलावा रास्ता क्या है
कि तुम अब यों न अकुलाओ, नयन में अश्रु भर लाओ,
तिमिर के ज्वार में डूबे, वहाँ तुम हो, यहाँ मैं हूँ।
अनल-अंगार में डूबे वहाँ तुम हो, यहाँमैं हूँ।
लहरिएँ और ये राहें कभी मिलतीं, बिछुड़तीं भी,
कि सीमाएँ हमारी फैलती भी हैं, सिकुड़ती भी;
कि छू कर जब अजाने ही कभी दृग-कोर जाती है,
बहुत झकझोर जाती है, बहुत कस डोर जाती है;
मगर हम बाँध पायेंगे नहीं चंचल हवाओं को,
पंखुरियों की शिराओं को, निगाहों को, घटाओं को;
न हिलको और हिलकाओ, सजीले केश बिखरायो,
किसी के प्यार में डूबे, वहाँ तुम हो, यहाँ मैं हूँ।
अनल-अंगार में डूबे वहाँ तुम हो, यहाँ मैं हूँ।
किसी की आरती का जब कहीं पर दीप मरता है,
बहुत संघर्ष करता है, सिहरता है, उभरता है;
प्रबल विद्रोह धूलों का, बवंडर का, बगूलों का-
मगर कुछ और ही विद्रोह है सुकुमार फूलों का;
मरण में भी सृजन के गीत गाये, ज़िन्दगी वह है,
पृथक व्यक्तित्व ले कर छटपटाये, बन्दगी वह है;
न यों मन मार रह जाओ, तड़प कर पार हो जाओ,
कि इस मंझधार में डूबे, वहाँ तुम हो, यहाँ मैं हूँ।
अनल-अंगार में डूबे वहाँ तुम हो, यहाँ मैं हूँ।
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