नई पुस्तकें >> प्रतिभार्चन - आरक्षण बावनी प्रतिभार्चन - आरक्षण बावनीसारंग त्रिपाठी
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५२ छन्दों में आरक्षण की व्यर्थता और अनावश्यकता….
आत्म-निवेदन
हमारी महान भारतीय संस्कृति सदैव ही समतामूलक रहीहै। यह समतामय भावना न केवल मानव मात्र तक ही सीमित है वरन् समस्त प्राणीमात्र में ममत्व एवं समत्व कीभावनाभागीरथी का स्फुरण है। श्रीमद्भगवत् गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण ने कहा है
विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
श्वनि चैव श्वपाके पण्डिता समदर्शिनः।।
इसके अतिरिक्त भी :
अयं निज:परोवेत्ति गणना लघु चेतसाम।
उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
इसी प्रकार -
'अभिधेय परम् साम्यं तथा समत्वं योग मुच्यते' आदि आप्त वाक्य सर्वत्र समता का उद्घोष करते हैं। इस्लाम धर्म का भी मूल सिद्धान्त (मसावात) समता ही है।
भारतीय संस्कृति के सम्पोषक एवं उन्नायक सभीवर्गों एवं जातियों के महापुरुष रहे हैं। महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, राम, कृष्ण, शिबरी, मातंग, व्यास, विदुर, महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य, सूफीसंत जायसी, कबीर, तुलसी, रहीम, रविदास, नानक, दादू, गाँधी आदि विभिन्न जातियों केहोतेहुए भी समस्त भारतीयों के लिए श्रद्धास्पद, पूज्य एवं प्रेरणास्रोत हैं। समस्त महापुरुषों ने जाति, देश-काल की सीमाओंको पार कर सम्पूर्ण मानवता की सेवा की है।
भारत का शाब्दिक अर्थ 'भा' का अर्थ है प्रभा, ज्ञान, ज्योति आभा, प्रतिभा आदि तथा 'रत' का अर्थ 'लगा हुआ' है। हमारी भारतीय संस्कृति ने बिना जातिगत भेद मानतेहुए सदैव ही प्रतिभा की पूजा की है। वर्तमान आरक्षण नीति क्या राष्ट्रीय प्रतिभा के विरुद्ध षड़यन नहीं हैं ? क्या यह वर्ग-विद्वेष मूलक नहीं है ? क्या यह अव्यवस्था एवं अक्षमता की जननी नहीं है ? क्या यह राष्ट्रीय भावात्मक एकता के लिए घातक नहीं है ? आदि अनेक प्रश्न गंभीरतापूर्वक विचारणीय हैं।
भारतीय संविधान में इसी सनातन चिंतन के फलस्वरूप समता को ही राष्ट्रीय निर्माण की अधार शिला बनाया गया है।संविधान निर्माता उद्भट स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानी, परम राष्ट्र भक्त एवं महान विधि-वेत्ता थे अस्तु उन्होंने संविधान के अन्तर्गतअनेक स्थलों में इसी समतामयी भावना को व्यक्त किया है। भारतीय संविधान के निम्न अनुच्छेद विशेष रूप से दृष्टव्य हैं।
अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के समक्ष सभी नागरिक समान समझे जायेंगे और धर्म, जाति, वर्ण, लिंग, एवं स्थान भेद के कारण उन में किसी भी प्रकार भेद भाव नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 16 में उल्लिखित है कि भारत के समस्त नागरिकों को लोक सेवाओं में समान अवसर दिया जायेगा।
वस्तुत: संविधान के अनुसार हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य समता मूलक समाज की संरचना ही है जिससे राष्ट्रीय भावात्मक एकता का निर्माण हो सके। निश्चित ही हमारे संविधान निर्माता दूरदर्शी थे। तदर्थ राष्ट्र सदैव उनके प्रति कृतज्ञ रहेगा।
पराधीनता काल में हमारे अंग्रेज शासकों ने अपने कुटनीतिकस्वार्थों की पूर्ति के लिए 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति के आधार पर अपने शासन के परवर्ती काल में जातिगत विद्वेष का बिरवा लगाने के लिए जातीय आधार पर आरक्षण की नीति निर्धारित की थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस दुर्नीति के विरोध में अनशन भी किया था। किन्तु खेद है कि पूज्य बापू के अनुयायी होकर भी हम जातिगत आरक्षण रूपी विद्वेष-वृक्ष को अब तक निरन्तर सींचते रहे। परिणाम स्वरूपअब तक राष्ट्रीय भावात्मक एकता का निर्माण मृग-मरीचिका बना हुआ है।
संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 7 के अनुसार [All are equal before the law and entitled without any discrimination to equal protection of law] मानव-मात्र में समानताकाही शंखनाद है। उपर्युक्त घोषणा पत्र की कसौटी पर भीवर्तमान आरक्षण नीति किसी भी दशा में खरी नहीं उतरती है।
जातिगत आरक्षण के फलस्वरूप एक ओर हीन भावना तथा दूसरी ओर प्रतिभाओं में कुण्ठा का घातक प्रसार हो रहा है फलस्वरूप 'प्रतिभा पलायन' की विकराल समस्या सुरसा सामुँह बाये राष्ट्र के समक्ष खड़ी है। जो राष्ट्रीय विकास की दिशा में सर्वथा दुर्भाग्य पूर्ण है। जातिगत आरक्षण के फलस्वरूप कतिपय जातियों के सामर्थ्यवान व्यक्ति पर्याप्त से अधिक लाभान्वित होते हैं जबकि उन्हीं जातियों के गरीब लाभ से वंचित रह जाते हैं यह सर्वथा अन्याय है।
हम समवेत रूप से भारत के प्रधान मंत्री माननीय श्री राजीव गांधी तथा अन्य समस्त दलों के समस्त नेताओं से विनम्र अनुरोध करते हैं कि राष्ट्रीय आरक्षण नीति के संदर्भ में क्षुद्र दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय-प्रतिभा केसंरक्षण एवंराष्ट्र के उत्थान के लिए वर्तमान जातिगत आरक्षण नीति पर गम्भीरता पूर्वक पुनर्विचार कर, किसी भी दशा में और अधिक विस्तार न करके प्रत्युत इसे सर्वथा समाप्त कर राष्ट्र के समस्त निर्बल तथा गरीबों को बिना जातिगतभेदभाव के समुचित संरक्षण प्रदान कर समस्त अपेक्षित मानवीय सहायता एवं सुविधाएं प्रदान करें जो सच्चे अर्थों में दरिद्र नारायण की सेवा एवं राष्ट्रपिता को सच्ची श्रद्धाँजलि होगी।
प्रस्तुत कृति प्रतिभार्चन में मैंने राष्ट्रीय प्रतिभा के प्रति होरहे निरन्तर अन्याय के विरुद्ध कोटि-कोटि भारतीय जन-मानसकी व्यथा को व्यक्त करने का लघु प्रयास किया है। मेरे हृदय में समस्त भारतीयों के प्रति परिपूर्ण समादर भाव है। किसी भी जाति अथवा वर्ग के प्रति रंचमात्र भी विद्वेष या दुर्भावना नहीं है किन्तु कहीं-कहीं पर कटु सत्य व्यक्त हो गया है जोराष्ट्रीय स्वरूप को स्वस्थ्य रखने के निमित्त मात्र कटु औषधिवत् ही है फिर भी यदि किसी सुनागरिक के हृदय में कहीं चोट लगती प्रतीत होती हो तो तदर्थ अग्रिम क्षमायाचना करतेहुए विनम्र निवेदन है कि समग्र कृति की मूल समतामयी भावनापर दृष्टिपात करने की अनुकम्पा करें। मेरा उद्देश्य वर्ग एवं जाति-गत विद्वेष की ज्वाला का शमन करते हुए मानवीयसमभाव की उदात्त स्थापना ही है।
प्रतिभार्चन में आरक्षण के संदर्भ में बावन मुक्तक संग्रहीत हैं। लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व कानपुर की माटी ने एक ऐसे कविकेसरी को जन्म दिया था जिसने बावन छन्द महाराज छत्रपतिशिवाजी को सादर समर्पित किये थे। उन्हीं कवि शिरोमणिभूषण से प्रेरणा प्राप्त कर वरेण्य प्रतिभा के धनी भावी पीढ़ी के छत्रपतियों को यह समर्पित कर स्वनाम धन्य कानपुर कीपरम्परा को आगे बढ़ाने का लघु प्रयास किया है।
भूमिका लेखन के लिए आचार्य प्रवर स्व. पं. सिद्धिनाथ मिश्र, का एवं सम्मान हेतु पत्रकार सम्राट स्व. पं. बनारसी दास जी चतुर्वेदी एवं आदरणीय डॉ. रतन चन्द्र वर्मा के प्रति हृदय से आभारी हूँ।
कृति के प्रथम संस्करण हेतु श्री जगदीश प्रसाद नेवटिया का, द्वितीय संस्करण हेतु श्री शुकदेव राय सिन्हा का, तृतीय संस्करण हेतु ठा. दलेल सिंह चौहान का तथा चतुर्थ संस्करण हेतु पं. शीतला प्रसाद अग्निहोत्री का, पंचम संस्करण हेतु श्री शुकदेव राय सिन्हा एवं षष्टम संस्करण हेतु श्री सुन्दर लाल पाण्डेय एवं समस्त सम्बन्धित संस्थाओं के प्रति आभारी हूँ।
प्रतिभार्चन का साहित्यिक मूल्य तो विद्वान मनीषी एवं सुकवि ही सुनिश्चित कर सकेंगे फिर भी यदि अन्याय एवं शोषण के प्रतिकार हेतु भारतीय सुनागरिकों एवं प्रतिभावान युवा पीढ़ी को कुछ भी प्रेरणा प्राप्त हो सकी तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा।
तथास्तु
महर्षि वाल्मीकि जयन्ती
1988
सारंग त्रिपाठी
विन्ध्य-कुटीर
ब्रह्मनगर, कानपुर
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