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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की शक्ति और सिद्धि

गायत्री की शक्ति और सिद्धि

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15482
आईएसबीएन :00000

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गायत्री की शक्ति और सिद्धि

 

गायत्री शक्ति का वैज्ञानिक आधार

आधुनिक विज्ञान बाह्य उपकरणों के सहारे मनुष्य जीवन की जटिलताओं को कम करने या सरल बनाने के लिए प्रयत्नशील है। बाहर उपकरण अर्थात् पदार्थों के माध्यम से जीवन की गुत्थियों को सुलझाने के कारण हो इसे पदार्थ विज्ञान कहा जाता है। प्राचीन काल में हमारे मनीषियों ने पदार्थ विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति करने के साथ-साथ चेतना को भी शोध और अन्वेषण का विषय बनाया था। इस क्षेत्र में चमत्कृत कर देने वाली प्रगति की थी।

चेतना विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के जो विधि विधान खोजे गये उनमें मन्त्र विद्या प्रमुख मानी गई। यों सामान्य रूप से मन्त्रों का स्वरूप कुछ विशिष्ट शब्दों का समूह ही दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में मन्त्र केवल शब्दों का समूह ही नहीं है। उनका गठन विज्ञान सम्मत प्रभाव को ध्यान में रखते हुए किया गया है। कुछ समय पूर्व तक मन्त्रों के प्रभाव और विशेषताओं को अन्धविश्वास के सिवा कुछ नहीं कहा जाता था पर अब विज्ञान भी मन्त्रों को शक्ति को प्रमाणित करने लगा है।

मन्त्र विद्या के वैज्ञानिक जानते है कि जीभ से जो भी शब्द निकलते है, उनका उच्चारण कर, तालू, मूर्धा, ओष्ठ दन्त जिहवामूल आदि मुख के अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से धनि निकलती है, उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभित्र भागों तक फैले होते हैं। इस फैलाव क्षेत्र में कई ग्रीनग्यी होती है, जिन पर उन उच्चारणों का प्रभाव पड़ता है। जिन लोगों की कोई सूक्ष्म ग्रन्धियाँ रोगी या नष्ट हो जाती हैं, उनके मुख से कुछ खास शब्द अशुद्ध या रुक-रुककर निकलते है। इसी को हकलाना या तुतलाना कहते है।

शरीर में अनेक छोटी-बड़ी, दृश्य-अदृश्य ग्रन्धियाँ होती है। योगी लोग जानते है कि उन कोशों में कोई विशेष शक्ति भण्डार छिपा रहता है। सुपुम्बा से सम्बद्ध षट्‌चक्र प्रसिद्ध है। ऐसी अगणित ग्रंथियाँ शरीर में है। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से उन ग्रंथियों का शक्ति भण्डार जाग्रत होता है, मन्त्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मन्त्र में २४ अक्षर है। इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी २४ ग्रंथियों से है जो जाग्रत होने पर सद्‌बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सुल शरीर का सितार २४ स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर लहरी उत्पत्र होती है जिसका प्रभाव अदृश्य जगत् के महत्वपूर्ण तत्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही हेतु है।

दीपक राग-गाने से बुझे दीपक जल उठते हैं मेघ-मल्हार गाने से वर्षा होने लगती है वेणु-नाद सुनकर सर्प लहराने लगते है मृग सुधि-बुद्धि भूल जाते है, गायें अधिक दूध देने लगती हैं। कोयल की बोली सुनकर काम भाव जाग्रत हो जाते हैं। अमेरिका के डॉक्टर हर्चिसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्टसाध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की। भारतवर्ष में अनेक तान्त्रिक लोग थाली को घड़े पर रख कर एक विशेष गति से बजाते हैं और उस बाजे से सर्प, बिन्दु आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए, कंठमाला, विषवेल भूतोन्माद आदि रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते है। कारण यह है कि शब्दों के कम्पन सूक्ष प्रकृति से अपनी जाति के अन्य परमायुओं को लेकर ईथर का प्रयोग करते हुए जब अपने उद्‌गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते है तो उनमें अपने प्रकार की एक विशेष विद्यत-शक्ति भरी होती है और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उस शक्ति का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मन्त्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने का भी यही कारण है। गायत्री मन्त्र द्वारा भी इसी प्रकार शक्ति का आभिर्भाव होता है। मन्त्रोच्चार में मुख के अंग क्रियाशील. होते है, उन भागों में नाड़ी तनु कुछ विशेष ग्रन्थियों को गुदगुदाते है। उनमें स्कुरणा होने से एक वैदिक छन्द का क्रमबद्ध यौगिक संगीत प्रवाह ईथर तत्व में फैलता है और अपनी कुछ क्षणों में होने वाली विश्व परिक्रमा से वापिस आते-आते एक स्वजातीय तत्वों की सेना वापिस ले आता है जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में बड़ी सहायक होतीं हैँ। शब्द संगति के शक्तिमान कम्पनों का पंचभौतिक प्रवाह और आत्मशक्ति को सूक्ष्म प्रकृति की याचना, साधना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया सम्बन्ध यह दोनों ही कारण साधक के लिए दैवी वरदान सिद्ध होते हैं।

शब्द केवल जानकारी ही नहीं और भी बहुत कुछ देते है। अब ऐसे प्रयोग भी किये जाने लगे है जिनसे खाद और, पानी के अलावा मधुर संगीत प्रवाह भी पौधों के विकास हेतु प्रयोग में लाये जा सकें। युगोस्लाविया में फसल को सुविकसित करने के लिए खेतों पर अमुक स्तर को वाद्य लहरियाँ ध्वनि विस्तारक यन्त्रों से प्रवाहित को गयी और उसका उत्साहवर्धक परिँणाम प्राप्त हुआ।

शब्द शक्ति से सम्भावित लाभ उठाने के लिए इस तरह के अनेकानेक प्रयोग चल रहे है। मन्त्र विद्या का एक आधार यह भी लै कि इस विद्या के ज्ञाताओं के अनुसार मन्त्र विद्या मेँ दो तत्वों का समावेश है-(१) शब्द शक्ति का दक्ष चेतना विज्ञान के आधार पर उपयोग (२) व्यक्ति र्कों आन्तरिक पवित्रता एवं भावोल्लास से उत्पन्न दिव्य तमता का समन्वय। इन दोनों के मिलन से एक ऐसी अद्‌भुत शक्ति उत्पत्र होती है, जो कितने ही बडे भौतिक साधनों सं उपलब्द्ध नहीं हो सकती।

मन्त्रों में अक्षरों के क्रम का तथा उनके उच्चारण की विशेष विधि व्यवस्था का ही अधिक महत्व है। कार, तालू, दाँत, होठ, मूर्धा आदि जिन स्थानो से शब्दोच्चारण होता है उनका सीधा सम्बन्ध मानव शरीर के सूक्ष संस्थानों से है। षट्‌चक्रों, उपत्यिकाओं एवं दिव्य नाड़ियों, ग्रंथियों का सूक्ष्म शरीर संस्थान अपने आप में अद्‌भुत है। इन दिव्य अंगों के साया हमारे मुख्य यंत्र के तार जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार टाइपराइटर की चाबियाँ दबाते चलने से ऊपर अक्षर टाइप होते चलते हैं, ठीक इसी प्रकार मुख से उच्चारण किये हुए विशेष वैज्ञानिक प्रक्रिया पत्रे साथ विनिर्मित मन्त्र गुम्फन का सीधा प्रभाव उपरोक्त संस्थानों पर पड़ता है और वहाँ तत्काल एक अतिरिक्त शक्ति-तरंगों का प्रवाह चल पड़ता है। यह प्रवाह मन्त्रविज्ञानी को स्वयं लाभान्वित करता है। उसकी प्रसुप्त क्षमताओं को जगाता है। भीतर गूँजते हुए वे मन्त्र कम्पन यही काम करते है और जब वे बाहर निकलते है तो वातावरण को प्रभावित करते हैं। सूक्ष्म जगत में अभीष्ट परिस्थितियों की सम्भावनाओं का सृजन करते है और यदि किसी व्यक्ति विशेष को प्रभावित करना है तो उस पर भी असर डालते हैं। मन्त्र विद्या इन तीनों प्रयोजनों को पूरा करती है।

राडार हमारे शरीर में भी विद्यमान है और वह भी यन्त्रों द्वारा बने हुए राडार की तरह काम करता है। उसे जाग्रत, सशक्त और सक्रिय बनाने के लिए मन्त्र विद्या का उपयोग किया जाता है। शब्द विद्या के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मन्त्रों के अक्षरों का चयन होता है। मन्त्र रचना कविता या शिक्षा नहीं है। शिक्षा भी उनमें हो सकती है पर वह गौण है। कविता की दृष्टि से भी मन्त्रों का महत्व गौण है। प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र में भी २३ ही अक्षर हैं जबकि छन्द शास्त्र के अनुसार उसमें २४ होने चाहिए। इस दृष्टि से उसे साहित्य को कसौटी पर दोषयुक्त भी ठहराया जा सकता है। पर शक्ति तत्व का जहाँ तक सम्बन्ध है वह सौ टच खरा है। उसकी सामर्थ्य का कोई पारावार नहीं।

साधारणतया ध्वनि चारों दिशाओं में फैलती है पर मन्त्रों में शब्द इस प्रकार गुम्फित होते है कि उसकी ध्वनि तरंगे विशेष प्रकार की हो जाती है। गायत्री मन्त्र को धनि तरंगे तार के छल्ले जैसी ऊपर उठती है और यह सूक्ष्म, अन्तराल के परमाणुओं के माध्यम से सूर्य तक पहुँचती हैं और जब यही ध्वनि सूर्य के अन्तराल में प्रतिध्वनित होकर लौटती है तो अपने साथ प्रकाश अणुओं की (गर्मी, प्रकाश व विद्युत सहित) फौज जप करने वाले के शरीर में उतरती चली जाती है। साधक उन अणुओं से शरीर ही नहीं मन और आत्मा की शक्तियों का विकास करता चला जाता है और कई बार वह लाभ प्राप्त करता है जो सांसारिक प्रयत्नों द्वारा कभी भी संभव न हो सके।

शब्द की शक्ति पर जितना गहरा चिन्तन किया जाय उतनी ही उसकी गरिमा और विलक्षणता स्पष्ट होती चली जाती है। बादलों की गरज से ऊंची इमारतें फट जाती हैं। आज की यान्त्रिक सभ्यता जितना शोर उत्पत्र कर रही है उसके दुष्परिणामों से मानव-जाति को पूरी न हो सकने वाली क्षति उठानी पड़ेगी। इस. तथ्य से समस्त संसार चिन्तित है। अतिस्वन और जैट विमान आकाश में जितनी आवाज करते है उससे उत्पत्र होने वाली हानिकारक प्रतिक्रिया को सर्वत्र समझा जा रहा है 1 और इन विशालकाय दुतगामी वायुयानों को कोलाहल रहित बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।

शब्द की सामर्थ्य सभी भौतिक शक्तियों से बढ़कर सूक्षम और विभेदन क्षमता वाली है। इस बात की निश्चित जानकारी होने के बाद ही मन्त्र विद्या का विकास भारतीय तत्वदर्शियों ने किया। यों हम जो कुछ बोलते है उसका प्रभाव व्यक्तिगत और समष्टिगत रूप से सारे ब्रह्माण्ड पर पड़ता है। तालाब के जल में फेंके गये कंपन की लहरें भी दूर तक जाती है। उसी प्रकार हमारे मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कम्पन उत्पन्न करता है। उस कम्पन से लोगों में अदृश्य प्रेरणायें जाग्रत होती है। हमारे मस्तिष्क में विचार न जाने कहाँ से आते हैं, हम समझ नहीं पाते। पर मन्त्रविद् जानते है कि मस्तिष्क में विचारों की उपज कोई आकस्मिक घटना नहीं वरन् शक्ति परतों में आदिकाल से एकत्रित सूक्ष्म कम्पन हैं जो मस्तिष्क के ज्ञान कोषों से टकराकर विचार के रूप में प्रकट हो उठते है, तथापि अपने मस्तिष्क में एक तरह के विचारों की लगातार धारा -का पकड़ने या प्रवाहित करने की क्षमता है।

एक ही धारा में मनोगति के द्वारा एक सी विचारधारा निरन्तर प्रवाहित करके सारे ब्रह्माण्ड के विचार-जगत में क्रान्ति उत्पन्न की जा सकती है, उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि उन विचारों को वाणी या सम्भाषण के द्वारा ही व्यक्त किया जाये।

'उच्चारण' और 'स्वर' में यही अन्तर है कि उच्चारण कंठ, होल, जीभ, तालु, दातों को संचालन प्रक्रिया से निकलता है और वह विचारों का आदान प्रदान कर सकने भर में समर्थ होता है। पर स्वर अन्तःकरण से निकलता है। उसमें व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और भाव समुच्चय भी ओत-प्रोत रहता है। इसलिए मन्त्र को स्वर कहा गया है। वेद पाठ में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित की उच्चारण प्रक्रिया का शुद्ध होना भी इसी ओर संकेत करता है। साधना क्षेत्र में स्वर का अर्थ वाक्-शक्ति के माध्यम से किये जाने वाले सशक्त जप अनुष्ठान से ही है।

मन्त्र की जो कुछ महिमा है उसका आधार वाणी को 'वाक्' के रूप में परिणत कर देना है। इसके लिए मन, वचन और कर्म में ऐसी उत्कृष्टता का समन्त्रय करना पड़ता है किए वाणी को दग्ध करने वाला कोई कारण शेष न रह जाय। इतना करने के उपरान्त उसके द्वारा जपा हुआ मन्त्र सहज ही सिद्ध होता है और उच्चारण किया हुआ शब्द असंदिग्ध रूप से सफल होता है। यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में पड़ी रहे तो उसके द्वारा जप किये हुए मन्त्र भी जल जायेगे और बहुत संख्या में बहुत समय तक जप, स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट फल न मिलेगा।

परिष्कृत जिहवा में वह शक्ति है जिसके बल पर किसी भी भाषा का, कोई भी मन्त्र प्रचण्ड और प्रभावशाली हो उठता है। उसके द्वारा उच्चारित शब्द मनुष्यों के अन्तस्तल को, असीम अन्तरिक्ष को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। ऐसी परिस्कूत वाणी-वाक् को अध्यात्म का प्राण कह सकते है। उसे साधक की कामधेनु एव तपस्वी का ब्रह्मास्त्र कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। इसी की परिमार्जित जिहवा को ''सरस्वती'' कहते है। साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले व्यक्ति को उस मन्त्र शक्ति की दीक्षा की महत्ता समझनी चाहिए। मन्त्र की माता उसे ही मानना चाहिए, सिद्धियों का उद्‌गम स्थल, भगवान को द्रवित कर सकने का माध्यम उसे ही मानना चाहिए।

मन्त्र सिद्धि में चार तथ्य सम्मिश्रित रूप से काम करते हैं:- 

(१) ध्वनि विज्ञान के आधार पर विनिर्मित शब्द श्रृंखला का चयन और उसका विख्रिश् उच्चारण 

(२) साधक की संयम द्वारा निग्रहति शक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश 

(३) उपासना प्रयोग में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरणों की भौतिक किन्तु मूक्ष शक्ति 

(४) भावना प्रवाह, श्रद्धा, विस्वास एवं उच्चस्तरीय लक्ष्य दृष्टिकोण। 

इन चारों का जहाँ जितने अंश में समावेश होगा वहाँ उतने ही अनुपात से मन्त्र शक्ति का प्रतिफल एवं चमत्कार दिखाई पड़ेगा। इन तथ्यों की जहाँ उपेक्षा की जा रही होगी और ऐसे ही अन्धाधुन्ध गाड़ी धकेली जा रही होगी, जल्दी-जल्दी वरदान पाने की ललक लग रही होगी वहाँ निराशा एवं असफलता ही हाथ लगेगी।

ईथर तत्व के परमायु अत्यंत सूक्ष्म और अति संवेदन शील है। वे एक सैकिण्ड में ३४ अरब तक कम्पन उत्पन्न कर सकते है। जब यह कम्पन चरम सीमा पर पहुँचते है तो उनसे अखण्ड प्रकाश की किरणें निकलने लगती है। इन किरणों में अद्‌भुत गतिशीलता होती है, वे एक सैकिण्ड में प्राय: एक करोड़ मील चल लेती हैं। वायु के कम्पन नष्ट हो जाते है, पर ईथर के कम्पनों का कभी नाश नहीं होता। वे सदा अमर रहते हैं। जैसे-जैसे वे पुराने होते जाते है वैसे-वैसे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सतह पर जाकर स्थिर हो जाते है। जहाँ वे बलिष्ठ होकर अपने समान धर्मों अन्य कम्पनों को अपनी ओर खींचते है अमवा दुर्बल होने पर दूसरों की ओर खिंच जाते हें। इस प्रकार जीर्ण होने पर भी एक नई चेतना को संघ शक्ति के आधार पर जन्म देते है और ऐसे चुम्बकत्व का सृजन करते है जो उन शब्दों के साथ जुड़ी हुई चेतनाओं से मनुष्यों को. प्रभावित कर सके, यहाँ भी सहधर्मिता का नियम लागू होता है। जिन मनुष्यों के मस्तिष्क की स्थिति उन प्राचीन किन्तु संगठित शब्द कम्पनों से मिलती-जुलती होगी, उसे मँत्र जप का समुचित लाभ प्राप्त हो जाता है। असमानता की स्थिति में कोई विचार या शब्द प्रवाह किसी को प्रभावित नहीं कर सकता केवल अपनी उपस्थिति का परिचय भर दे सकता है।

यों शरीर भी एक छोटा किन्तु पूरा विश्व है। इसमें सभी तीर्थों के बीज पीठ विद्यमान है। इनमें से किसी एक अथवा एक साथ अनेक पीठों को जाग्रत एवं प्रखर बनाया जा सकता है। कोई-कोई व्यक्तित्व मूर्तिमान शक्ति पीठ होते है। यही सिद्ध पुरुष मानवीय चेतना में घुसा हुआ है उसे निकालने हटाने में थोड़ा-सा ही प्रबल प्रयत्न सफल हो सकता है। साधना इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए है। साधना समर में यदि आत्म-तत्व बाजी ले गया तो फिर पौराणिक समुद्र मंथन में प्राप्त १४ रत्नों में से भी अधिक मूल्य की अगणित दैवी सम्पदायें प्राप्त होती हैं। उन्हें पाकर मनुष्य आप्त काम हो जाता है फिर और कुछ पाना शेष नहीं रह भुनाता। साधनाकाल दैवी आसुरी संघर्षों की, तुमुल युद्ध कीं अवधि है। इसमें पूरे कौशल, चातुर्य एवं साहस का प्रयोग करना पड़ता है। यह युद्ध उपेक्षा पूर्वक, ज्यों-त्यों करके, ढीले-पोले मन से बेगार भुगतने की तरह नहीं लड़ा जा सकता है। उसमें पूरे मनोयोग एवं प्रबल पराक्रम की आवश्यकता पड़ती है।

साधना जब साधक का सर्व प्रिय विषय बन जाय-उसमें निरत रहने को स्वयमेव मन चले-उन क्षणों को घटाने की नहीं बढ़ाने की ललक रहे-उपासना से उठने पर शरीर में स्फूर्ति और मन में सरसता रखो तो समझना चाहिए परिपक्वता आ गई और इसका श्रेयस्कर सत्परिणाम अत्यन्त सन्निकट है। आरम्भ में यह स्थिति नकली रूप में बनानी पड़ती है। थोड़े समय में वह स्थिति स्वाभाविक बन जाती है। बलपूर्वक मार-धाड़ और धर-पकड़ द्वारा बलात्कार पूर्वक उच्चस्तरीय मन:स्थिति बनाने के काल को ही साधना काल कहते है जब वह स्थिति सहज बनी रहने लगे तो समझना चाहिए कि सिद्धावस्था प्राप्त हो गई।

आत्मा का परमात्म सत्ता के साथ घनिष्ट-एकाकार-तदात्म तन्मय होने की स्थिति को साधना की प्रखरता कहते हैं। जब दोनों का सघन मिलन होता है तो उसे आत्म-विभोर स्थिति को समाधि कहा जाता है। आवश्यक नहीं कि उस स्थिति में योग निद्रा अथवा मूर्छा ही आवे। ज्ञान साधना में स्थिज्ञ कीं-कर्म साधना में अनासक्त कर्त्तव्य-पराय की-भीक्ते साधना में व्यापक स्नेह सौजन्य कीं-स्थितिप्रज्ञ प्राप्त होती है। इससे मूर्छा तो नहीं आती पर आत्म ज्ञान का आलोक एवं संतोष समाधान का अनवरत अनुभव होता है। साधक अपने को भगवान में और भगवान को अपने में एकाकार देखता है। दोनों की इच्छाएँ एवं क्रियाएँ एक ही स्तर की होती है।

इन्द्रिय संयम और मानसिक एकाग्रता की दोनों धारायें मिलकर मानवी विद्युत शक्ति का निर्माण करती हैं। बिजली ठंडे और गरम दो तारों के द्वारा प्रवाहित होती है। इसी प्रकार शरीर और मन कीं शक्तियों को वासना और तृष्णा में बिखरने न देने से वह सामर्थ्य जमा होती है जिसे प्राण शक्ति अथवा ओजस कहा जाता है। योगशास्त्र में साधना क्षेत्र के छात्रों को यह नियम बरतने की, शारीरिक और मानसिक संयम बरतने की प्राथमिक तैयारी करने के लिए कहा गया है। यदि इन दोनों बड़े छेदों में होकर मानवी विकृत नष्ट होती रहे तो फिर मन्नरूपी ईधन को चलाने के लिए तेल, कोयला, ईधन आदि कहाँ से आयेगा। मात्र शब्दोच्चारण का नाम ही तो मन्त्र साधना नहीं है।

उपार्जन काल में सात्विक आहार-विहार ब्रह्मचर्य, मौन, एकान्त सेवन, परिमार्जित दिनचर्या, मनन-चिन्तन द्वारा साधना को सीधा जाता है। उसके उपरान्त उसे सस्ती प्रशंसा सूटने के लिए दिखाये जाने वाले चमत्कारों से बचाया जाता है। सिद्धियों को लोभ-मोह के उथले प्रयोजन पूरे करने में भी खर्च किया जा सकता है और अपने को तथा दूसरों को आत्म-कल्याण की दिशा में प्रेरित करने के लिए भी उसका उपयोग हो सकता है। स्वल्प श्रम में अधिक भौतिक सफताएँ पाना कर्म विज्ञान के विपरीत है। उसके लिए यदि मन्त्र शक्ति का प्रयोग किया जायगा तो वह देर तक टिक न सकेगी और उसी खिलवाड़ में नष्ट हो जायगी! हाँ, यदि आत्म-कल्याण के लिए उसका प्रयोग होगा तो उससे इसमें और भी तीव्रता आयेगी जैसे कि चाकू को पत्थर पर रगड़ने से उसकी धार तेज होती है और जंग छूटकर चमक आती है।

मन्त्र सिद्धि के लिए साधक के शरीर को पोषण देने वाली उसका रक्त और ओजस बनाने वाली वस्तुओं का विशेष महत्व है। आहार से शरीर और विहार से मन परिपुष्ट होता है! पदार्थों में परसंचालित शक्ति है जिसे स्वसंचालित शक्ति के सहारे गतिशील किया जा सकता है। कोयला, तेल और पानी में भाप बनाने को शक्ति हैं, पर वह आग एवं प्रयोक्ता की स्वसंचालित शक्ति के सहारे ही प्रकट हो सकती है। पदार्थों की शक्ति को भी साधना काल में प्रयोग किया जाता है। अनेक विधि-निषेध एवं वस्तु प्रयोग इसी दृष्टि से बने है। किस मन्त्र की सिद्धि के लिए किन पदार्थों से हवन किया जाय। आहार में क्या वस्तुएँ प्रयुक्त की जाँय। पुरजा के उपकरणों में किस स्तर को प्रधानता दी जाय, आदि को विधियाँ-परसंचालित शक्ति को स्वचालित शक्ति का साथ देने के लिए, उभारने के लिए है। इन्जन मेँ भाप बनाने और उसे पहिए घुमाने मे लगाने की प्रक्रिया इसी प्रकार सम्पन्न होती है।

हृदय को शिव और जिह्वा को शक्ति कहते है। हृदय, प्राण और जिह्वा रयि है। हृदय को अग्नि, जिह्वा को सोम कहते है। दोनों का समन्वय धन और कण विद्युत धाराओं के मिलने से जो शक्ति प्रवाह उत्पन्न करता है, वही मन्त्र के चमत्कार रूप में देखा जा सकता है।

वाणी से उपासना करना पर्याप्त नहीं, उसे 'वाक्' बनाकर ही इस योग्य बनाया जा सकता है कि अध्यात्म पथ पर बढ़ते हुए साधक को कुछ कहने लायक सफलता मिल सके। आयुर्वेद में सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, अभ्रक्र पारद आदि की भस्म बनाकर उनके स्कैन का विधान है। विषों का भी बड़ा लाभ बताया गया है, पर वह सम्भव तभी होता हैं जब उन विषों को विधान पूर्वक शुद्ध किया जाय। वाणी एक मूल पदार्थ .है। शोधित होने पर वह अमृत बन जाती है और विकत होने पर विष का काम करती है। शोधित वाणी को ही 'वाक्' कहा गया है।

मन्त्र की शक्ति का विकास जप से होता है। जितनी अधिक घिसाई-पिसाई की जाती है उतनी ही पदार्थ की शक्ति उभरती है। ढेले को मोड़ते-तोड़ते उसे अयु स्थिति में ले जाया जाय तो वह अणु ढेले की तुलना में अत्यधिक सामर्थ्यवान होगा। घोटने और पीसने की प्रक्रिया बहुत समय तक चलते रहने पर ही आयुर्वेदिक दवायें गुणकारी होती है। इस तथ्य को हर कोई जानता है।

हाथों को थोड़ी देर लगातार घिसा जाय तो वे गरम हो जाते है। रगड़ से गर्मी और बिजली पैदा होती है यह नियम विज्ञान की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाले छात्र भी जानते है। जप में अनवरत उच्चारण क्रम एक प्रकार का घर्षण उत्पन्न करता है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ पड़ने से घिसाव के निशान बन जाते हैं। स्वाँस के आवागमन तथा रक्त की भाग-दौड़ से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है और उसी पर जीवन अवलम्बित रहता है। डायनमों में पहिया घूमने से बिजली उत्पन्न होने की बात सभी जानते हैं। जप में जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वह दौड़ लगाने पर शरीर के उत्तेजित हो जाने की तरह सूक्ष शरीर में उत्तेजना पैदा कर देती है और उस गर्मी से मूर्छित पड़ा अन्तर्जगत नये जागरण का अनुभव करता है। यह जागरण मात्र उत्तेजना नहीं होती उसके साथ-साथ दिव्य उपलब्धियों की सम्भावना भी जुड़ी रहती है।

ध्वनियाँ उतनी ही नहीं हैं जितनी कि कानों से सुनाई पड़ती है। कान तो एक निश्चित स्तर के ध्वनि-कम्पनों को ही सुन पाते है। उनकी पकड़ से ऊँचे और नीचे कम्पनों वाले भी असंख्य धनि-प्रवाह होते है जिन्हें मनुष्य के कान तो सुन नहीं सकते, पर उनके प्रभावों को उपकरणों की सहायता से प्रत्यक्ष देखा, जाना जा सकता है। इन्हें 'सुपर सोनिक' ध्वनि तरंगें कहते हैं।

मनुष्य की ग्रहण और धारण शक्ति सीमित है। वह अपनी दुबली-सी क्षमता के लिए उपयुक्त शब्द प्रवाह ही पकड़ सके, इसी स्तर की कानों की झिल्ली बनी है। किन्तु यह संसार तो शक्ति का अथाह समुद्र है और इसमें ज्वार-भाटे की तरह श्रवणातीत ध्वनियाँ गतिशील रहती है। अच्छा हो हुआ कि मनुष्य की ग्रहण-शक्ति सीमित है और वह अपने लिए सीमित प्रवाह ही ले पाता है अन्यथा यदि श्रवणातीत धनियाँ भी उसे प्रभावित कर सकती तो जीवन धारण ही सम्भव न हो पाता।

शब्द की गति साधारणतया बहुत धीमी है। वह मात्र कुछ सौ मील प्रति सैकिण्ड चल पाती है। तोप चलने पर धुँआ पहले दीखता है और धड़ाके की आवाज बाद में सुनाई पड़ती है। जहाँ दृश्य और श्रव्य का समावेश है वहाँ हर जगह ऐसा हो होगा। दृश्य पहले दीखेगा और उस घटना के साथ जुड़ी हुई आवाज कान तक पीछे पहुँचेगी।

रेडियो प्रसारण में एक छोटी सी आवाज को विश्वव्यापी बना देने और उसे १ लाख ८६ हजार मील प्रति सैकिण्ड की चाल से चलने योग्य बना देने में इलैक्ट्रो मैगनेटिक तरंगों का ही चमत्कार होता है। रेडियो विज्ञानी जानते है कि 'इलेक्ट्रो मैगनेटिक वेव्‌स' पर साउण्ड का सुपj कम्पोज रिकार्ड कर दिया जाता है और वे पलक मारते सारे संसार को परिक्रमा कर लेने जितनी शक्तिशाली बन जाती है।

इलेक्ट्रो मैगनेटिक तरंगों की शक्ति से ही अन्तरिक्ष ने भेजे गये राकेटों की उड़ान को धरती पर से नियन्त्रित करने, उन्हें दिशा और संकेत देने, यान्त्रिक खराबी दूर करने का प्रयोजन पूरा किया जाता है। वे 'लैसर' स्तर की बनती हैं तो शक्ति का ठिकाना नहीं रहता। एक फुट मोटी लोहे को चद्दर में सुराख कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। पतली वे इतनी होती हैं कि आँख की पुतली के लाखवें हिस्से में खराबी होने पर मात्र उतने ही टुकड़े का निर्धारित गहराई तक र्ही सीमित रहने वाला सफल-आपरेशन कर देती हैं। अब इन किरणों का उपयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी बहुत होने लगा है। केसर, आन्त्रशोथ, यकृत की विँकृत्रि गुर्दे की सृजन, हृदय की जकड़न जैसी बीमारियों की चिकित्सा में इनका सफल उपयोग हो रहा है।

'सुपर सोनिक' तरंगों का जप प्रक्रिया द्वारा उत्पादन और समन्वय होता है। जप के समय उच्चारण किये गये शब्द में आत्मनिष्ठा श्रद्धा एव संकल्प शक्ति का समन्वय होने से वही क्रिया सम्पन्न होती है, जैसी रेडियो स्टेशन पर बोले गये शब्द से जो विशिष्ट विद्युत शक्ति के साथ मिलकर अत्यन्त शक्तिशाली हो उठते है और पलक मारते समस्त भूमण्डल में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते है। जप प्रक्रिया में एक विशेषता यह है कि उससे न केवल समस्त संसार का वातावरण प्रभावित होता है वरन् साधक का व्यक्तित्व भी झनझनाने, जगमगाने लगता है जबकि रेडियो स्टेशन से प्रसारण तो होता है पर कोई स्थानीय विलक्षणता दिखाई नहीं पड़ती। लैसर-रेडियम किरणें फेंकने वाले यन्त्रों में कोई निजी प्रभाव नहीं देखा जाता। वे उन स्थानों को ही प्रभावित करते है जहाँ उनका आघात लगता है। जप-क्रिया में साधक को और वातावरण को प्रभावित करने की वह दुहरी शक्ति है-जो नव वैज्ञानिकों के सामान्य यन्त्र उपकरणों में नहीं पाई जाती।

जप योग में शब्द-शक्ति के इसी प्रभाव को काम में लाया जाता है। मन्त्रों के जप से साधना में एक ऐसी चेतनाशक्ति का उद्भव होता है जो जप कर्त्ता के शरीर एवं मन में विचित्र प्रभाव की हलचलें उत्पन्न करती है और अनन्त आकाश में उड़कर विशिष्ट व्यक्तियों को, विशेष परिस्थितियों को तथा समूचे वातावरण को प्रभावित करती है।

कहा जा चुका है कि मन्त्रों का चयन ध्वनि विज्ञान को आधार मानकर किया गया है अर्थ का समावेश जौहर है। गायत्री मन्त्र की सामर्थ्य अद्‌भुत है पर उसका अर्थ अति सामान्य है। इसी अर्थ प्रयोजन को व्यक्त करने वाले मन्त्र श्लोक हजारों है। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में भी ऐसी कविताओं की कमी नहीं जिसमें सद्‌बुद्धि की प्रार्थना की गई हो। फिर उन सब कविताओं को गायत्री के समकक्ष क्यों नहीं रखा जाता और क्यों नहीं माना जाता? वस्तुत: मन्त्र द्रष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुन्थन ही महत्वपूर्ण रहा है। उनका सृजन यह ध्यान में रखकर किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कंपन उत्पन्न करता है और उनका जप-कर्ता, बाह्य वातावरण तथा अभीष्ट प्रयोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है?

मानसिक, वाचिक और उपांशु जप में ध्वनियों के हल्के भारी किये जाने की प्रक्रिया काम में लायी जाती है। वेद मन्त्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त-अनुदात्त और स्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीचे, ऊँचे तथा मप्सर्ती उतार-बढ़ाव के साथ किया जाता है। उनके सस्वर उच्चारण की परम्परा है। यह सब विधान इसी दृष्टि से बनाने पड़े है कि उन मन्त्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके।

मन्त्र जप की दुहरी प्रतिक्रिया होती है। एक भीतर दूसरी बाहर। आग जहाँ जलती है उस स्थान को गरम करती है साथ ही वायुमण्डल में ऊष्मा बखेरकर अपने प्रभाव क्षेत्र को भी गर्मी देती है। जप का ध्वनि प्रवाह समुद की गहराई में चलने वाली जल धाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश से छितराई हुई उड़ने वाली हवा की परतों की तरह अपनी हलचलें उत्पन्न करता है। उनके कारण शरीर में यत्र-तत्र सन्निहित अनेकों 'चक्रों' तथा 'उपत्यिका' ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। लगातार एक नियमित क्रम से चलने वाली हलचलें ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती है, जिन्हें रहस्यमय ही कहा जा सकता है। पुलों पर सैनिकों को पैरों को मिलाकर चलने से उत्पन्न क्रमबद्ध धनि न उत्पन्न करने के लिए इसलिए मना किया जाता है कि इस साधारण सी प्रक्रिया से पुल तोड़ देने वाला असाधारण प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।

जप लगातार करना पड़ता है और एक ही क्रम से इस क्रिया के परिणामों को विज्ञान की प्रयोगशाला में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक टन भारी लोहे का गार्टर किसी छत के बीचों-बीच लटका दिया जाय और उस पर पाँच ग्राम भारी हल्के से कार्क के लगातार आघात लगाने प्रारम्भ कर दिये जायें तो कुछ ही समय में वह सारा गार्टर काँपने लगेगा। यह लगातार एक गति से आघात क्रम से उत्पन्न होने वाली शक्ति का चमत्कार है। मन्त्र जप यदि विधिवत् किया गया है तो उसका परिणाम भी यही होता है। सूक्ष्म शरीर में अवस्थित चक्रों और अस्थियों को जप ध्वनि का अनवरत प्रभाव अपने ढंग से प्रभावित करता है और उत्पन्न हुई हलचल उनकी मूर्छना दूर करके जागृति का अभिनव दौर उत्पन्न करती है। ग्रन्थिभेदन तथा चक्र जागरण का सत्परिणाम जपकर्त्ता को प्राप्त होता है। जपे हुए यह दिव्य संस्थान साधक में आत्म-बल का नया संचार करते है। उसे ऐसा कुछ अपने भीतर जगा, उगा प्रतीत होता है जो पहले नहीं था। इस नवीन उपलब्धि के लाभ भी उसे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होते है।

टाइप राइटर के उदाहरण से इस तथ्य को और भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। उँगली से चाबियाँ दबाई जाती है और कागज पर तीलियाँ गिरकर अक्षर छापने लगती है। मुख में लगे उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले कलपुर्जों को टाइप राइटर की कुञ्जियाँ कह सकते है। मन्त्रोच्चार उँगली से उन्हें दबाना हुआ। यहाँ से उत्पन्न शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्म चक्रों और दिव्य ग्रन्थियों तक पहुंचता है और उन्हे झकझोर कर जगाने, खड़ा करने में संलग्न होता है। अक्षरों का छापना वह उपलब्धि है जो इन जाग्रत चक्रों द्वारा रहस्यमयी सिद्धियों के रूप में साधक को मिलती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि यदि जप योग को विधिवत् साधा गया होगा तो उसका सत्परिणाम उत्पन्न होगा ही।

पुलों पर होकर गुजरती हुई सेना को पैर मिलाकर चलने पर उत्पन्न होते धनि प्रवाह को उत्पन्न करने की मनाही कर दी जाती है। पुलों पर से गुजरते समय वे बिखरे हुए, स्वच्छन्दतापूर्ण कदम बढ़ाते है। कारण यह है कि लेफ्ट राइट के ठीक क्रम तालबद्ध पैर पड़ने से जो एकीभूत शक्ति उत्पन्न होती है उसकी अद्‌भुत शक्ति के प्रहार से मजबूत पुलों में दरार पड़ सकती है और भारी नुकसान हो सकता है। मन्त्र जप के क्रमबद्ध उच्चारण से उसी प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है और उसके फलस्वरूप शरीर के अन्त: संस्थानों में विशिष्ट हलचलें उत्पन्न होती है। यह हलचलें उन अलौकिक शक्तियों की मूर्छना दूर करती है, जो जाग्रत होने पर सामान्य मनुष्य को असामान्य चमत्कारों से सम्पन्न सिद्ध कर सकती है।

इन्ही वैज्ञानिक कारणों से सभी धर्मों ने अपनी उपासना पद्धति में मन्त्रों का समावेश किया है चाहे वह हिन्दू सिक्स, ईसाई, बौद्ध या बहाई कोई भी क्यों न हो। सभी धर्मो में मन्त्र जप अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। इन सभी मंत्रों के अपने-अपने प्रभाव और विशेषतायें है। इन सभी विशेषताओं के अलावा गायत्री मन्त्र में एक विशेषता यह है कि उसमें परमात्मा से सद्‌बुद्धि ज्ञान और प्रकाश की कामना की गई है। यह विशेषता उसके २४ अक्षरों के शरीर के २४ महत्वपूर्ण स्थानों की प्रतिध्वनि से उत्पन्न विशेष 'सर्किल' से इतर होती है, जिससे साधक पर तत्काल दोहरी प्रतिक्रिया प्रारम्भ होती है अर्थात् मन्त्र का, सृष्टि के रहस्यों के उद्‌घाटन का प्रभाव, जप से पापों के क्षय और पुनर्जन्म से मुक्ति के प्रभाव के साथ-साथ सांसारिक श्री, समृद्धि, शक्ति और साधनों का भी लाभ इस तरह मिलने लगता है जिससे न तो साधक संसार में भटकता है और न सांसारिक वैभव में आसक्त होता है। यह लाभ किसी और मन्त्र में न होने से गायत्री मन्त्र को भारतीय संस्कृति में सर्वोपरि महत्ता प्रदान की गई है।

लेख के प्रारम्भ में मन्त्र की परिभाषा में यह बताया गया है कि मन्त्र वह है जो सृष्टि के यथार्थ को उजागर करता है। गायत्री मन्त्र के नियम पूर्वक जप से उत्पन्न शब्द शक्ति का चक्रवात अनन्त ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करता है। इस यात्रा में जो लहरें या स्पन्दन आगे बढ़ते है वे परमात्मा से अभियाचित धिय: तत्व की भावना से ओत प्रोत रहते हैं।

यह शब्द शक्ति ब्रह्माण्ड की गोलाई में परिक्रमा करके जब लौटती है तो व्यक्ति के सतोगुणी जीवन के अनेक लाभ, पूर्ववर्ती साधकों के आकाश में घूम रहे इतिहास, उनकी विचारणाओं, प्रेरणा, मन्त्र जप के साथ परिप्रेषित भाव तरंगों के साथ लौटकर साधक के मस्तिष्क से टकराने लगती हैं। गायत्री उपासना से कभी-कभी मन में एकाएक ऐसे विचार पैदा हो जाते है जो किसी संकट से बचाने, सफलता के लिए गुड़ प्रेरणा देने वाले होते है। स्वयँ उपासक समझ नहीं पाता कि यह विचार कहाँ से आ गया। पर ध्वनि और मन्त्र का यही विज्ञान उसका कारण होता है, जिससे उपासक को विलक्षण स्वप्न, विलक्षण ध्वनियोदिकदर्शन, पुलक और प्रकाश के दर्शन होते हैं। इस प्रक्रिया में यदि साधक की अपनी मन:स्थिति इस तरह की हो कि वह बुराइयों को संकल्प पूर्वक निकाल फेंकने और मन को पारमार्थिक क्रियाकलापों में लगाकर रखने मेँ शिथिल न पड़े तो वह कुछ ही समय में गायत्री उपासना के चमत्कारी लाभों का अनुभव करने लगता है।

हन सभी कारदहे से गायत्री को सर्वश्रेष्ठ उपासना कहा गया है। पुराणों में उल्लेख है कि सुरलोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है वह अमृतोपम दूध देती है जिसे पीकर देवता लोग सदा सन्तुष्ट, प्रसन्न तथा सुसम्पन्न रहते है। इस गौ में यह विशेषता है कि उसके समीप कोई अपन कुछ कामना लेकर जाता है तो उसकी इच्छा तुरन्त पूरी हो ही जाती हैं। कल्प वृक्ष के समान गौ भी अपने निकट पहुँचने वालों की मनोवांछा पूरी करती है।

यह कामधेनु गौ गायत्री है। है। इस महाशक्ति की जो देवता दिव्य स्वभाव वाला मनुष्य उपासना करता है, वह माता के स्तनों के समान आध्यात्मिक दुग्धधारा को पान करता है। उसे किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं रहता। आत्मा स्वत: आनन्द स्वरूप है। आनन्द मग्न रहना उसका प्रमुख गुण है। दुःखों के हटते और मिटते ही वह अपने मूल स्वरूप में पहुंच जाता है। देवता स्वर्ग में सदा आनन्दित रहते है। मनुष्य भी भूलोक में उसी प्रकार आनन्दित रह सकता है यदि उसके कष्ट कारणों का निवारण हो जाय। गायत्री मनुष्य के सभी कष्टों का समाधान कर देती है।

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