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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की शक्ति और सिद्धि

गायत्री की शक्ति और सिद्धि

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15482
आईएसबीएन :00000

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गायत्री की शक्ति और सिद्धि

सत्परिणाम अनायास नहीं विज्ञान सम्मत


गायत्री उपासना का भावात्मक एवं वैज्ञानिक दोनों ही दृष्टियों से बड़ा महत्व है। भावना की दृष्टि से विचार किया जाय तो मानव जीवन के चरित्र उत्कर्ष का बीजमंत्र उसे कहा जा सकता है। सामान्यतया मनुष्य सबसे अधिक उपेक्षा सद्‌बुद्धि की ही करता है, जिस औजार से उसे निर्माण कार्य करना है उसे ही टूटा-फूटा भौंथरा और अनगढ रखता है। इस भूल के फलस्वरूप ही उसे जीवन लक्ष्य से वंचित रह जाना पड़ता है।

गायत्री मन्त्र में ईश्वर से यही माँगा गया है कि हमें आपने मानव शरीर देकर असीम अनुकंपा की है अब मानब बुद्धि देकर हमें उपकृत और कर दीजिए ताकि हम सच्चे अर्थो में मनुष्य कहला सकें और मानव-जीवन को सार्थक बनाते हुए उसमें निहत जीवन में आनन्द का लाभ उठा सकें। गायत्री के २४ अक्षरों में परमात्मा के 'सवितुः' 'वरेण्य' 'भर्गः' और 'देव' गुणों का चिन्तन करते हुए उन्हें अपने जीवन में धारण करने की आस्था बनाते हुए यह संकल्प किया गया है कि परमात्मा के अनुग्रह एवं वरदान की एक मात्र विभूति सद्‌बुद्धि को भी हम प्राप्त करते रहेगे। अपने जीवन को उसी ढाँचे में ढालेगे जिसमें कि सद्‌बुद्धि सम्पन्न महा-मानव ढलते चले आये हैं। उसी संकल्प को बार-बार पूरी निष्ठा और भावनापूर्वक दुहराने का नाम गायत्री जप है। जप का सच्चा स्वरूप समझते हुए जो उस उपासना को करते हैं वे उसका अनिवर्चनीय लाभ भी प्राप्त कर लेते है। वे इस अमृत को पाकर अमर बन जाते है और इस मृत्यु-लोक में रहते हुए भी दिव्य-लोक में निवास करने का स्वर्गीय आनन्द पग-पग पर अनुभव करने लगते है।

वैज्ञानिक दृष्टि से गायत्री उपासना के अगणित भौतिक लाभ भी है। कष्टों और आपत्तियों में पड़े हुए, विपत्तियों में फँसे हुए, अभाव और दारिद्रय से पीड़ित असफलता की ठोकरों से विक्षुब्ध व्यक्ति यदि इस महामन्त्र का आश्रय लेते है तो उन्हें आशा की किरणें दृष्टिगोचर होती है। जिन्हें अपना भविष्य अन्धकारमय दीख रहा था और आपत्तियों के कुचक्र में पीसे जाने का भय सता रहा था, उन्हें इस उपासना से नया प्रकाश मिला है। अभाव ग्रस्त व्यक्ति दारिद्रय से और रुग्ण मनुष्य पीड़ाओं से छुटकारा प्राप्त करते देखे गये हैं।

कामनाओं की जलती हुई आग तृप्ति और शान्ति में परिणत होती देखी गई है। इस अवलम्बन का सहारा लेकर गिरे हुए लोग ऊपर उठते है। इस प्रकार के प्रतिफल किसी जादू से नहीं, वरन् एक वैज्ञानिक पद्धति से उपलब्ध होते है। गायत्री उपासना मनुष्य के विचारों और कार्यों में एक नया मोड़, एक नया परिवर्तन प्रस्तुत करती है। जिसका अन्तर्जगत बदले तो उसके बाल-जीवन में परिवर्तन प्रस्तुत होना ही चाहिए, होता भी है। इसे ही लोग गायत्री माता का अनुग्रह एवं वरदान भी मानते है।

अनेक व्यक्तियों को गायत्री उपासना के फलस्वरूप अनेक प्रकार के कष्टों से छुटकारा पाते और अनेक सुविधायें उपलब्ध करते हुए देखकर हमें यही अनुमान लगाना चाहिए कि उस साधन पद्धति में ऐसे वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश है जिनके कारण साधक की अन्तःभूमि में आवश्यक हेर-फेर उपस्थित होते है और वह असफलताओं एवं शोक संतापों पर विजय प्राप्त करते हुए तेजी से समुन्नत, समर्थ एवं सफल-जीवन की ओर अग्रसर होता है।

गायत्री उपासना से साधकों की सामयिक कठिनाइयों का निवारण होने के समाचार आये दिन मिलते रहते है। इसी प्रकार प्रगति पथ पर आगे बढ़ने की सुविधा संवर्धन की ऐसी घटनाएँ भी सामने आती रहती है जिनसे प्रतीत होता है कि किसी अदृश्य सहायता के सहारे साधक को ऐसे लाभ प्राप्त होते हैं जिनकी प्रस्तुत परिस्थितियों में केवल कल्पना भर थीं-आशा नहीं। कष्ट निवारण और सुविधा संवर्धन की अनेकानेक घटनाओं को गायत्री उपासना का सत्परिणाम कहा जाता है। यह घटनाएँ किम्बदन्तियों नहीं है और न अत्युक्तियाँ। जो सामने है उसमें शंका करने की गुंजायश नहीं रह जाती। आये दिन उपलब्ध होती रहने वाली सूचनाओं की जाँच-पड़ताल करके यह सहज ही जाना जा सकता है कि उन घटनाओं में कुछ अलौकिकता है या यह सब ऐसे ही अनायास संयोगवश घटित हुआ समझा जा सकता है।

ऐसा भी हो सकता है कि अनायास ही कोई संकट टल गये हों और संयोगवश ही किन्हीं को कोई बड़ी उपलब्धियों मिल गई हों। यह भी संभव है कि उन उपलब्धियों का श्रेय पनाबुक लोगों ने गायत्री उपासना को दे दिया हो। कुछ ऐसे भी प्रशा हो सकते हैं, पर अधिकांश के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे संयोगवश हुए।

वस्तुत: इस संसार में संयोगवश कुछ भी नहीं होता। जिन्हें हम आकस्मिक या अनायास कहते है वे सब भी प्रकृति के नियमानुसार ही होते है। अन्तर इतना ही रहता है कि जिन क्रियाओं की प्रतिक्रिया का अपनी स्वल्प बुद्धि को ज्ञान है उन्हें स्वाभाविक कहा जाता है और जो अपने अपरिचित प्रकृति नियमों के अनुसार होता है वह आश्चर्यजनक प्रतीत होता है।

गायत्री उपासना के द्वारा मिलने वाले सत्परिणाम भी लगते आश्चर्यजनक और अप्रत्याशित है पर वस्तुत: वैसी कोई बात नहीं। जो घटित होता है वह तथ्यों पर आधारित रहता है। उपासना की प्रतिक्रिया भी इसी कसौटी पर भली प्रकार परखी जा सकती है।

उपासना का विज्ञान गम्भीरता पूर्वक समझने का प्रयत्न किया जाय तो इसका प्रभाव साधक की अपनी मनोभूमि में सात्विकता की मात्रा का संवर्धन होता है। इसे एक ऐसी आकर्षण शक्ति कह सकते हैं जो अन्तरंग के रोम-रोम में प्रसुप्त पड़ी हुई दिव्य क्षमताओं को जगाती झकझोरती है। वे उगती बढ़ती है तो सहज ही उनका प्रभाव व्यक्तित्व के विभिन्न क्षेत्रों में उभार उत्पन्न करता है। विकसित व्यक्तित्व अपने चिन्तन को सुधारता है। अनुपयुक्त दृष्टिकोण अपनाते ही अवंछिनीय इच्छाएं उत्पत्र होती है। संचित कुसंस्कार उनका परिपोषण करते हैं। दूषित वातावरण से दुष्ट संगति से उन्हें और अधिक बल मिलता है जिनके कारण अनावश्यक और अहितकर कामनाएँ मन:क्षेत्र पर छाई रहती है। इनकी पूर्ति असम्भव है। समस्त संसार का वैभव मिलकर भी एक व्यक्ति की कामनाएं पूरी नहीं कर सकता। रावण, हिरण्यकश्यपु सहसबाहु और वृत्रासुर जैसे असुरों ने चरम सीमा तक वैभव संग्रह करने में सफलता पाली थी, तो भी उनका असंतोष दूर न हुआ। अन्य किसी की भी अवांछनीय मनोकामनाएं पूरी हो सकेंगी-अथवा पूरी होने पर संतोष मिल सकेगा सम्भव नहीं। जितना मिलेगा उससे दूनी, चौगुनी तृष्णा इस उपलब्धि के साथ-साथ ही आग में घी डालने की तरह भड़क उठेगी। इस तथ्य के रहते हुए भी गायत्री उपासकों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं इसके दो कारण हैं एक तो यह कि चिन्तन में उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ने से उचित-अनुचित का, आवश्यक-अनावश्यक का विवेक बढ़ जाता है और अवांछनीयता की आग अनायास ही ठण्डी हो जाती है। दूसरा कारण यह है कि उपयुक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिस स्तर का चिन्तन कर्तत्व और व्यक्तित्व चाहिए वह सात्विकता की अभिवृद्धि के साथ-साथ ही बढ़ने लगता है। अपनी पात्रता के अनुरूप ही कामना के स्तर में काट-छाँट कर ली जाती है। साथ ही प्रयासों में उपयुक्त रीति-नीति का समन्वय हो जाने से सफलता सरलतापूर्वक जल्दी और अभीष्ट मात्रा में मिलने लगती है। यह सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया ही लोगों को चमत्कार दीखती है और देवता की अनुकम्पा से मिला हुआ वरदान प्रतीत होती है।

देवता का वरदान भी एक नियम, क्रम और सिद्धान्त पर आधारित है। उसमें न तो अंधेरगर्दी की गुजायश है और न पक्षपात की। पूजा करने वाले को देवता निहाल करें और न करने वालों पर लाठी लेकर बरस पड़े ऐसा हो ही नहीं सकता। यदि ऐसा होने लगेगा तो संसार में घोर अव्यवस्था और अराजकता छा जायगी। सफलताओं के लिए पात्रता और पुरुषार्थ की शर्त अनादि काल से चली आ रही है। इसी कारण लोग थमता बढ़ाने और साधन जुटाने के लिए प्रयत्न-पराक्रम करते है। यदि सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रहने वाली प्रथा उलट जाय और देवता के अनुग्रह से मनोकामनाएँ पूरी हो जाया करें तो फिर निश्चय ही संसार को क्रम व्यवस्था ही पूरी तरह उलट जायगी। फिर न कोई अपनी पात्रता बढ़ायेगा और न सफलता के लिए अभीष्ट पुरुषार्थ करने की आवश्यकता समझेगा। देवता यदि सस्ती पूजा-पत्री से प्रसन्न हो जाते है तो इतना करने में तो किसी बालक को भी कुछ कठिनाई न होगी। पूजा विधानों पर दृष्टिपात करने से वे स्वला समय स्वल्प श्रम और स्वल्प खर्च में पूरे हो सकने वाले दीखते है। यदि स्थिति वैसी ही रही होती जैसी कि अम-ग्रस्तों द्वारा समझी जाती है तो फिर संसार का एक भी आदमी उस सस्ते मोल की देव कृपा को खरीदने से वंचित नरहता और तब किसी की भी मनोकामनाएं अपूर्ण न रहती।

इसका अर्थ यह नहीं कि देवता किसी पर अनुकम्पा करते ही नहीं, देवी अग्रह से अनेकों को आशाजनक लाभ मिलते हैं। पर वह सारी अनुकम्पा पद्धति विशुद्ध वैज्ञानिक और तथ्यपूर्ण सिद्धान्तों पर अवलम्बित है। उपासना का तत्वज्ञान यदि सही रीति नीति से समझा गया होगा और उसके उपचारों को यदि सही रीति से अपनाया गया होगा तो उसकी सुनिश्चित प्रक्रिया साथ के आत्म परिष्कार के रूप में प्रस्तुत होगी। साधन और सात्विकता एक ही तथ्य के दो नाम-रूप है। यदि साधना सच्चे सिद्धान्तों के साथ चल रही होगी तो चिन्तन और क्रिया-कलाप में सात्विकता निश्चित रूप से छलकेगी और इस उफान का सत्परिणाम अनेकों प्रत्यक्ष आधारों के सहारे समस्याओं के समाधान और सुबिधाओं के सम्वर्धन के रूप में सामने दिखाई देगा। मन: स्थिति में अन्तर आते ही परिस्थिति में अन्तर पड़ना स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होगा। अन्तरंग का सुधार बाहर के सुधार का परिवर्तन उत्पन्न न करे ऐसा हो ही नहीं सकता। स्वजनों का विरोध असहयोग, तिरस्कार प्राय: अकारण ही नहीं बरस पड़ता उसके मूल में कुछ अपनी भी अवांछनीयताएँ होती है। उनके दूर होते ही सम्पर्क क्षेत्र के व्यक्ति अनुकूल बनते हैं सहयोग करते है। फलत: अवरोध बड़ी मात्रा में सरल हो जाते हैं। प्रगति और कुछ नहीं, प्रतिकूलताओं के घटने और अनुकूलताओं के बढ़ने का ही दूसरा नाम है। इसमें आधारभूत कारण अपना ही व्यक्तित्व होता है। उसमें तामसिकता छाई रहे तो अनेक प्रकार के विग्रह उत्पन्न होते रहेगे और यदि सात्विकता की मात्रा बढ़ेगी तो समृद्धि और प्रगति की परिस्थितिश सहज ही बनती चली जायेंगी।

देवताओं की शक्ति सूल जगत में मौजूद है। यह देवता ईश्वर से पृथक कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसी महासमुद्र की लहरें है। उन्हें महासूर्य की विभिन्न स्तर की किरणें कहा जा सकता है। वे सृष्टि व्यवस्था को सुसंतुलित रखने का ईश्वरीय प्रयोजन पूरा करती रहती है। धर्म का संरक्षण और अधर्म का उन्मूलन उनकी गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु रहता है। इसी आधार पर उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता निर्भर रहती है। यही वह आधार है जिसके निमित्त वे सहयोग देते और विरोध करते रहते है। अकारण न वे किसी पर प्रसन्न होते है न रुष्ट। पूजा से देवता की प्रसन्नता की संगति जुड़ती तो है परं उसके मध्य में एक और तथ्य को विद्यमान देखना पड़ेगा। सच्ची पूजा से सात्विकता की अभिवृद्धि होना सुनिश्चित है। व्यक्तित्व में यह देवत्व का अभिवर्धन ही देव अग्रह के रूप में प्रकट-परिणत होता है। यदि पूजा के उपचार, कर्मकाण्ड मात्र को हीं देवाराधन मान लिया जाय और उतने ही भर से तरह-तरह के बरदान मिलने की बात सोची जाय तो यह मान्यता शास्वत तथ्यों के विपरीत एक बचकानी आत्म-प्रवंचना ही कही जायगी। देवता उतने ओछे हो ही नहीं सकते कि पूजा उपचार के कर्मकाण्डों को भी भक्ति भावना मान ले अन्तरंग की स्थिति न समझ सके, पात्र-कुपात्र का विचार किये बिना पुजारियों पर अन्धाधुन्ध अनुकम्पा बरसाना आरम्भ कर दें। यदि कोई देवता करेगा तो उसे सृष्टि विधान, ईश्वरीय नियम, मर्यादा के प्रतिकूल काम करने वाला कहा जायगा! ऐसी दशा में उस बेचारे की अपनी स्थिति ही बड़ी दयनीय एवं उपहासास्पद बन जायगी। तब उसे देवता कहलाने तक का अधिकार न रहेगा।

देवताओं का अनुग्रह सीधा धन सम्पदा के रूप में नहीं मिलता। वे स्वयं दिव्य हैं, चेतन हैं, इसलिए उनके अनुदान भी दिव्य एवं चेतन ही हो सकते हैं! न वे स्वयं भौतिक पदार्थों से बने है और न उनके उपहार भौतिक पदार्थों या परिस्थितियों के रूप में कहीं बरसते हैं। देवता के अवतरण का क्षेत्र अन्तःकरण है। अन्तःकरण में देवत्व की कितनी किरणें उतरी, कितनी दिव्य प्रेरणायें उभरी, इसी पर्यवेक्षण से यह जाना जा सकता है कि किस पर किस मात्रा में देवता प्रसन्न हो रहे हैं और साधक को उनका अग्रह किस परिमाण मेँ उपलब्ध हो रहा है।

पुरुषार्थ का प्रतिफल पैसे के रूप में हाथ लगता है। उस कमाई के बदले बाजार से इच्छित वस्तुऐं खरीदी जा सकती है। श्रमिक को सीधे उसकी अभीष्ट वस्तुएँ न मिलकर वेतन के रूप में मिलती है। ठीक इसी प्रकार देवता अपने भक्तों को सीधे धन वैभव आदि नहीं देते। वे सतेरणाएँ और सतवृत्तियों प्रदान करते है। वास्तविक वैभव यही है। विभूतियों इन्हीं को कहते हैं। यह सम्पदायें जिनके पास होगी वे उस हुण्डी को किसी भी दुकान पर चुना सकते हैं और किसी भौं क्षेत्र की किसी भी स्तर की सफलता प्राप्त कर सकते हैं। पिता ने बच्चे को पड़ा दिया, पढ़ाई की कीमत पर उसने अच्छा पद और वेतन प्राप्त कर लिया। यही घुमावदार तरीका देव अनुग्रह के रूप में क्रियान्वित होता है। न तो बाप अपने सुयोग्य बेटे को उच्च पद एवं अच्छा वेतन देता है और न देवता किसी की छत पर धन वैभव बरसाते है। साधक को उपासना के फलस्वरूप सतेरणायें मिलती है। सन्मार्ग पर चलने के संकल्प उभरते हैं। सत्संकल्पों को निष्ठा पूर्वक अपनाये रहना और उन्हें क्रियान्वित करने का साहस मिलना देवताओं का प्रत्यक्ष वरदान है। इतने भरपूर अनुग्रह को पर्याप्त भका कहा जा सकता है। सत्प्रेरणाओं का क्रियान्वयन तो मनुष्य का अपना काम है। उपासना के साथ साधना का युग्म इसीलिए अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ माना गया है। साधक को मात्र पूजा कर लेने मान से ही निवृत्ति नहीं मिल जाती वरन उपासना का प्राण कही जाने सवाली जीवन साधना को भी श्रद्धा पूर्वके साधना पड़ता है। बिजली के दो तार मिलने पर करेंट बहने लगता है।

उपासना के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सद्‌भावना को कार्यरूप में परिणत करना ही साधना है। साधक का उत्तरदायित्व उन दोनों ही प्रयोजनों को पूरा करता है। दोनों कदम बढ़ाते हुए ही सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर चलना और लस्य तक पहुँचना सम्भव होता है। सच्चे साधक पूजा उपासना तो करते ही है साथ ही देवानुग्रह के रूप में बरसने वाली दिव्य प्रेरणाओं को भी शिरोधार्य करते हैं। उनकी गतिविधियों में जिस अनुपात से देवत्व का समावेश होता है उसी अनुपात में सुख सम्पदाओं, वैभव विभूतियों का लाभ मिलता चला जाता है।

कोई व्यक्ति यदि पूजा-उपासना तो तरह-तरह की करता है किन्तु आत्म परिष्कार की ओर ध्यान नहीं देता तो समझना चाहिए कि उसकी उपासना देवता तक पहुंचती ही नहीं, उसे प्रसन्न करने में समर्थ हुई ही नहीं, यदि तो प्रयुत्तर अवश्य आता और बदले में सदभावनायें उमड़ती, सद्विवेक जागता और में असाधारण उत्साह उत्पन्न होता। जीवन क्रम स्वार्थान्ध बना रहे लोभ-मोह से वासना-तृष्णा से आगे की कुछ बात ह्म ही न पड़े तो समझना चाहिए कि देवाराधन के सिद्धाँत को समझने में साधक ने कोई भयंकर भूल की है और यदि श्रम जंजाल की आत्म प्रवंचना में भटक रहा है। ऐसी दशा में यदि उसे निराश रहना पडे मनोकामना पूर्ण न होने की शिकायत करनी पड़े तो उसमें किसी को किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

गायत्री महाशक्ति सदबुद्धि की अफ्यिात्री है। उसे ऋतम्बरा प्रज्ञा-ब्रह्मविद्या कहा गया हे, वेद माता होने का तात्पर्य यही कि उसकी उपस्थिति का प्रमाण परिचय दूरदर्शी विवेकशीलता के रूप में मिलता है। यही वह हुण्डी है जिसके बदले अन्तःकरण में उल्लास उभरता हैं। चिन्तन में उत्कृष्टता का अनुपात बढता है और किया-कलाप में आदर्शवादिता की झलक क्रमश: अधिकाधिक मात्रा में मिलती चली जाती है। यही है गायत्री माता का प्रत्यक्ष अग्रह जिसके आधार पर साधना की सफलता को परखा जा सकता है। यह अद्‌भुत जिस पर बरसेगी उसे अपनी सदाशयता और कर्त्तव्यनिष्ठा से हर घड़ी आत्मसंतोष और आत्म गौरव का आनन्द मिलता रहेगा। ऐसे लोग बाह्य जगत में उच्चस्तरीय सफलताएँ पाते है। ओछे मनुष्य जहाँ वासना-तृष्णा की कीचड़ में लोटने को ही सब कुछ मानते हैं वहाँ आन्तरिक के सहारे महामानव बना जा सकता है। लोक- श्रद्धा और जन सहयोग की उन्हें कमी नहीं रहती। इन उपलव्यियों के सहारे वे इतने बड़े काम कर तुजरते हैं-इतने ऊँचे स्तर तक पहुँच सकते है जिन्हें सामान्य लोगों तुलना में दैवी अनुग्रह से उपल्ब्ध हुए चमत्कार--वरदान मानने में कोई अत्युक्ति नहीं है।

गायत्री उपासना के सत्परिणाम असंदिग्ध है। अथर्ववेद में वेदमाता के अनुग्रह से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रव्य, ब्रह्मवर्चस इन सात लाभों का उपलब्ध होना कहा गया है। इस प्रतिपादन मेँ रत्ती भर भी अत्युक्ति नहीं है? आये दिन मिलने वाले समाचारों से विदित होता रहता हैं कि माता का अंचल पकड़ने वालों को विपत्तियों से छूटने, सुविधा साधन बढ़ाने-एवं सफलताएँ पाने में आशाजनक सहायता मिली है। ऐसी घटनाओं के मूल में साधक के चिन्तन एवं चरित्र में सात्विकता की अभिवृद्धि ही मूल कारण होती है। जहाँ व्यक्तित्व निकृष्ट ही बना रहने पर कोई विशिष्ट उपलब्धि मिली हो उसे संयोगवश अन्धे के हाथों बटेर लगने की उक्ति घटित हों जाने के समान हो समझना चाहिए। गायत्री उपासना के सत्परिणाम, अध्यात्म विज्ञान के विशुद्ध तथ्य और सिद्धान्तों पर आधारित है। उनमें न किसी सन्देह की गुजायश दैइ और .न -बनाश्चर्य करने की। ऋतम्भरा प्रज्ञा को अन्तःकरण में धारण करके जीवन नीति का संचालन-यही है गायत्री का तत्वज्ञान और उसकी उपासना के आश्चर्यजनक फल का रहस्योद्‌घाटन। सच्चा गायत्री उपासक न केवल अपने लिए आहुति देकर सुख-शान्ति का उपार्जन करता है वरन् अपनी नाव में बिठाकर असंख्यों को उस पार पहुंचाने में समर्थ होता है।

गायत्री का माहात्म्य भावानात्मक दृष्टि से भी है और वैज्ञानिक दृष्टि से भी। इसी से इस महान अध्यात्म संबल को श्रद्धापूर्वक अपनाये रहने और उसे नित्य कृत्यों में स्थान दिये रहने का शास्त्रकार ने निर्देश दिया है। ऋषियों ने प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति के लिए गायत्री की निष्ठापूर्वक उपासना करने के लिए जोर दिया है और जो उस उपयोगी व्यवस्था का लाभ नहीं उठाना चाहते उनकी भूल को, कटु भर्त्सना के साथ निन्दनीय भी ठहराया है।

गायत्री उपासना हमारे अपने हित में ही है। इस माध्यम से मनुष्य निश्चय हो अपनी बहुत आत्मोन्नति कर सकता है। जिन्होंने अभी इस मार्ग पर चलना आरम्भ नहीं किया हैं उन्हें चाहिए कि अवलम्बन के एक परीक्षण के रूप में वे गायत्री उपासना आरम्भ करें और देखें कि उनके उज्ज्वल भविष्य की संभावना उत्पन्न करने में कैसे आश्चर्यजनक ढग से यह उपासना सहायक हो रही है।

 

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